Saturday, 14 December 2013

लेट्स वेट एण्‍ड वॉच....

दिल्‍ली की राजनीति गुड़गुड़-गुड़गुड़ कर रही है ।क्‍या आपको भी सुनाई दिया ? त्रिकोणीय मुकाबले गुड़ को अक्‍सर गोबर बना ही देते हैं। तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा की कहावत चरितार्थ हो गई । बीजेपी, कांग्रेस और आआप की तीन-तिकड़म से तो राजनीति भी हार गई साहिब । तीनों ने कंफ्यूज ही कर दिया है इसे। 

वैसे इस सबसे इतर कुछ सवाल हैं -

सरकार न बनने से नुकसान किसका हो रहा है ? विकास की दर और रफ्तार कहां के धीमे होने से खामियाजा किसे भुगतना पड़ रहा है ? जिन उम्‍मीदों से वोट डाला था, उनका एग्‍ज़ीक्‍यूशन न होने से निराश किसे होना पड़ रहा है? कौन पिछड़ रहा है ? ऐसे दोराहे पर खड़ी जीत से हार कौन रहा है ? राजनीति से कुछ भला होने को लेकर ख्‍याली पुलाव कौन पका रहा है ?
इन सभी प्रश्‍नों का सीधा सा जवाब है - जनता उर्फ वोटर्स उर्फ मासूम आम आदमी । राजनीति के चोंचले और दांवपेंच हम नहीं जानते । ये तो वो राजनीति मठाधीशों का काम है न ! यही है राजनति का ट्रेडिशनल (पारंपरिक
) पैटर्न । इस पैटर्न का यू टर्न अगर कभी हुआ तो उम्‍मीदों के सूरज पर रोटियां सेंकने की ख्‍वाहिशें पाल सकते हैं । वर्ना , कहने को तो सूरज है लेकिन क्‍या फायदा इसकी गर्मी का जब हम(जनता) इस पर अपनी रोटियां तक नहीं सेक सकते ! राजनीति का सूरज हमेशा की तरह इस बार भी अपने लिए ही रोटियां सेंक रहा है । इसमें चमत्‍कार या बदलाव की बात कहां से आ गई !

केजरीवाल ने शर्तों की जो वॉल बनाई है ,उसे तोड़ने का माद्दा या साहस न बीजेपी करती दिख रही है और न ही कांग्रेस । अंबूजा सीमेंट से बनी होगी शायद । चुनाव से पहले जिस कुर्सी को पाने के लिए करोड़ो रूपये लुटाए गए , आज उसी कुर्सी पर बैठने को कोई दल तैयार नहीं है। ये तो विडंबना की पराकाष्‍ठा है ! हो सकता है कि इसमें कांट निकल आए हों ! चौंकिए मत ! राज‍नीति में सब कुछ संभावित है।
कुर्सी के पद के लिए दो दल उभरे हैं । आआप और बीजेपी । ऐसे में आआप शर्तों की बिसात पर राजनीति का दांव क्‍यों चल रही है ? दिल्‍ली के कीचड़ में कमल खुद को खिलने से क्‍यों रोक रहा है ? आइये जनाब, आप ही आइये । शाइनिंग इंडिया न सही कम से कम शाइनिंग दिल्‍ली को ही हक़ीकत का अमली जामा पहना दीजिए । आइये ता सही । कुर्सी संभालिए तो सही ।
हैलो, कांग्रेस । तुम तो कम से कम न ही फुदको इतना । तुम एक्‍स्‍ट्रा प्‍लेयर हो चुके हेा अब । इस खेल(चुनाव) में तुम्‍हें खिला तो लिया , लेकिन हमने(गैर कांग्रेसी दल) बताया नहीं कि तुम्‍हारी कच्‍ची है ।

कोई भी गठबंधन या समझौते की राजनीति नहीं करना चाह रहा है । पूरी मलाई खुद ही चखना चाहता है हर कोई । ऐसे में गठबंधन की राजनीति बहुमत की राजनीति से कहीं बेहतर लगने लगती है । शक़ होता है कि , अकेले रहेंगे तो किसी का दबाव नहीं होगा । जो मर्जी होगी वही करेंगे । वगैरह वगैरह ।
मन ही मन हर दल कुर्सी पाना चाहता है । बावजूद इसके कोई भी दल गठबंधन के दलदल में नहीं फंसना चाहता है।
ऐसे में हमें अपनी चिर-परिचित क्रिया करनी चाहिए । ये है - लेट्स वेट एण्‍ड वॉच । यही तो करते आ रहे है आज़ादी के बाद से ।

Wednesday, 30 October 2013

कमल वाले सभी तालाब ढक दो !

सारे कमल के तालाब ढकवा देने चाहिए । अरे भई, देश की सबसे पुरानी पार्टी कह रही है! बस , यूं ही उसे ऐतराज है तो है । बड़ा ही अजीबोगरीब मांग है ये तो ! कुदरत के इस खूबसूरत चेहरे को वोट पाने के लालच की बदबू से लैस चादर से ढकने की चुनाव आयोग से की गई इस गुजारिश में राजनीतिक साजिश की बू आ रही है।
हे भगवान ! राजनीतिक षडयंत्र का यही गंदा चेहरा देखना बाकी था । वैसे इस चेहरे से हमारी राजनीतिक विश्लेषण करने वालों की प्रबुद्ध जमात ने हमें न तो अवगत कराया और न ही परिचित करवाया। अपनी दिमागी खुचड-पुचड को अपनी कलम की स्याही के रास्ते पन्ने पर उतार दिया होता है तो जरा हम भी आपकी सोच से वाकिफ हो लेते । क्या ख्याल है ? वैसे भी आप लोग ही तेा ओपिनियन लीडर बनकर उभरे हैं । आप जैसेां पर यह उपाधि एकदम सूट भी करती है।

राजनीति पर तमाम विश्लेषण करने वालों , कहां हो ? राजनीति के इस गिरते हुए स्तर का भी तो विश्लेषण कर लिया करो कभी-कभार।कहां दुबक कर बैठे हो ?

क्या कहा ? इस मामले में कलम की दखलअंदाजी करने की हिम्मत नहीं है ! कहीं अपनी कलम के हमेशा के लिए छिनने का डर तो नहीं सता रहा है ? अच्छा यही बात है।
ओह ! वैसे आपका यह डर भी अपनी जगह सही ही है। क्या पता यही पार्टी एक बार फिर से सत्ता में आ गई और आपका इस मुद्दे पर विश्लेषण उसे हजम न हो और फिर फिर कलम पर ही पाबंदी लगवाकर आापको दोबारा कभी विश्लेषण करने लायक ही न छोडकर आपका हाजमा हमेशा के लिए बिगाड दे ! क्या भरोसा ऐसी पार्टी का ? प्रबुद्धता की तो वॉट लग जाएगी !
ऐसा ही कुछ-कुछ दिमाग में चल रहा है न ? वैसे आखिरी सांसे गिनने के बावजूद इस पार्टी के ऐसे दमखम को देख कर आपके हाथ-पैर ढीले पडना लाजिमी है । आखिरकार,इसका  ष् सच्चा ष्  विश्लेषण लिखने से पेट पर लात पड़ने का खतरा भी तो आप पर ही मंडरा रहा है । और भी मुद्दे हैं , यूं उन पर ही लिखते रहिए फिर तो । किसी की आलोचना करके काहे को बेवजह पंगा मोल लेना !

वैसे, आपके डर को देखते हुए मुझे तो दूसरी पार्टियां खतरे के कटघरे में खड़ी नज़र आ रही हैं। पार्टी की उपरोक्त मांग अभी तो मध्य प्रदेश तक ही सीमित है। अगर इस पार्टी ने ऐसी ही मांग पूरे देश में हर एक पार्टी के लिए कर दी तो क्या होगा !

कल को यही पार्टी देश की सभी साइकिलों को पंचर करने की मांग भी तो चुनाव आयोग से कर सकती है ! यानि कि साइकिल पर चलने वाले आम आदमी की एकमात्र गद्दी भी छीनकर उसे पैदल चलता कर दिया जाएगा ! देश के सभी हाथियों को चिडियाघर में हमेशा के लिए कैद कर देना चाहिए । यानि कि इस मांग से आम आदमी का प्यारा साथी भी खुल कर सांस लेने से महरूम हो जाएगा ! इसका मतलब कि भविष्य में दोबारा ष्हाथी मेरा साथीष् जैसी कोई फिल्म सिनेमाघरों तक नहीं पहुंचने वाली ! ऐसे में आम आदमी से सीधा सरोकार रखने वाली झाडू भी आम आदमी की पहुंच से दूर न हो जाए कहीं ! आम आदमी सवेरे-सवेरे झाडू लगाता है ताकि उसके घर में लक्ष्मी का आगमन हो । घर की साफ-सफाई हो सके और गंदगी को बाहर निकाल कर फेंका जा सके । झाडू का अगर अस्तित्व मिटाने के लिए मांग अगर कर दी तो फिर न आम आदमी कभी भी आर्थिक रूप से सशक्त होने वाला ओर न ही इस देश में लंबे समय तक फैली रहने वाली यह गंदगी साफ होने वाली है ! बाकी छोटी मोटी पार्टियां तो यह सब देखकर ही अपना दम तोड़ देंगी। कुल मिलाकर अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान तो आम आदमी का ही होना है ! इसका मतलब है कि पिछले छरूह दशकों से यह पार्टी एैंवे ही कहती आई है - ऋ ऋ ऋ ऋ ऋ ऋ का हाथ , आम आदमी के साथ। धेाखा ! इससे तो अच्छा यही होगा कि शेर ही अपना ष्पंजाष् मारकर हमें मिटा दे । कम से कम तड़प-तड़प कर मरने से तो अच्छा ही है।

लंबे अर्से से देश की छाती पर पंजे मार मारकर आम आदमी को घायल करती आई इस पार्टी को सबक भी आम आदमी ही सिखा सकता है। अभी वक्त है। सोच-समझकर हाथ की उंगली को ईवीएम पर रखिएगा भईया। वर्ना इस बार गल्ती की तो आम आदमी मिलना
तो दूर , हमारी गुठली तक के नामोनिशान नहीं मिलने वाले ! बाई चांस , अगर एक दो गुठलियां मिल भी गईं तो पक्का ये विश्व का आठवां अजूबा होगा !





Sunday, 22 September 2013

फिर गधे को इतना प्रताड़ित क्यों किया जाता है ?

कई बार मुझे 'भाई लोगों' की बात पर बहुत गुस्सा आता है। जब भी उनकी खोपड़ी घूमती है, किसी को भी गधा करार दे देते हैं। जैसे गधा, गधा न होकर दुनिया की सबसे मूर्ख शख्स़ियत हो। अरे भई, गधे की भी अपनी इमेज होती है, उसकी भी कोई बिरादरी होती है जहाँ उसने मुँह दिखाना होता है। उसके भी अपने 'इमोशन्‍श' होते हैं। अब क्या हुआ जो गधा सबके सामने हँसता नहीं है, रोता नहीं है, मुस्कराता नहीं है, ईर्ष्याता नहीं है, घिघियाता नहीं है और न ही आँखे तरेर कर देखता है। अपनी भावनाओं पर काबू रखने में गधे का क्या कोई सानी है? नहीं न। तो फिर गधे को इतना ज़लील क्यों किया जाता है कि हर ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे की तुलना उससे कर दी जाती है।

भाई लोग मेरी इस साफ़गोई का भले ही बुरा मानें लेकिन भाई मैं तो गधे के लिए अपने दिल में साफ्ट-कॉर्नर रखता हूँ। उसकी इज़्ज़त करता हूँ। गधे को मैंने बहुत क़रीब से देखा है, जाना है। गधा एक ऐसा प्राणी है जिसका इस समाज को अनुसरण करना चाहिए, उसके पदचिन्हों पर चलना चाहिए। अब देखो न, गधा कभी बयान नहीं बदलता। अपने स्टैंड पर कायम रहता है। आस्थाएँ भी नहीं बदलता। जिसके साथ खड़ा हो गया, दिलोजान से उसके साथ चलेगा। धांधलियों की शिकायत करने भी नहीं जाता। खोखले वायदे भी नहीं करता। नारे भी नहीं लगाता। उस पर सवार होकर कोई कितना भी क्यों न चीख-चिल्ला ले, गधे पर कोई असर नहीं पड़ता। उसकी सहनशक्ति गज़ब की है। क्या हम में से कोई इतनी सहनशक्ति का मालिक है?

आप गधे पर कोई भी निर्णय थोप दो। गधा कभी रियेक्ट नहीं करेगा। गधा चुपचाप अपना गुस्सा पी जाएगा लेकिन विवाद खड़ा नहीं करेगा। वैसे भी विवाद खड़ा करके चर्चा में बने रहना गधे की आदतों में शुमार नहीं है। गधा कभी भी किसी बात को स्टेटस सिंबल नहीं बनाता। उसे आप किसी भी दिशा में धकेल दो, वह उसी तरफ़ चल देगा और कभी यह नहीं कहेगा कि उसे दक्षिण दिशा में मत मोड़ों क्योंकि दक्षिण पंथी विचारधारा उसे रास नहीं आती। गधे के ऊपर आप किसी भी विचारधारा का बैनर लटका दो, गधा कभी नाक भौं नहीं सिकोड़ेगा। गधे के ऊपर आप किसी को भी बिठा दो, गधा कभी खुद को ज़लील महसूस नहीं करेगा। गधा उसी अलमस्त अंदाज़ में चलेगा जो अंदाज़ उसे पूर्वजों से विरासत में मिला है।

गधे की एक और खूबी यह भी है कि उसे दुनिया के किसी भी मसले से कोई लेना-देना नहीं है और न ही वह किसी मसले में अपनी टाँग अड़ाता है। वह अमेरिका की तरह किन्हीं दो मुल्कों के पचड़े में नहीं पड़ता। न किसी की पीठ थपथपाता है और न किसी को धमकाता है। भारतीय क्रिकेट टीम की कमान किस को सौंपी गई है और किस प्रांत के खिलाड़ी को बाहर बिठाया गया है, गधे को इससे भी कोई लेना-देना नहीं है। गधा तो कभी यह राय भी ज़ाहिर नहीं करता कि फलां खिलाड़ी लंबे अरसे से आऊट आफ़ फार्म चल रहा है, उसे टीम में क्यों ढोया जा रहा है? अगर मुल्क की टीम लगातार जीत रही हो तो गधा खुशी से बल्लियों नहीं उछलता और अगर टीम लगातार पिट रही हो तो गधा मैदान में पहुँचकर न तो मैच में विघ्न डालता है, न खाली बोतलें फेंकता है और न ही हाय-हाय के नारे लगाता है। गधा तो यह शिकायत भी नहीं करता कि अंपायर ने किसी खिलाड़ी को ग़लत आऊट दे दिया है, लिहाज़ा अंपायर को बाहर भेजा जाए और नया अंपायर लगाया जाए। कौन-सी टीम मैच जीतेगी और कौन खिलाड़ी सेंचुरी मारेगा, गधा इस बात पर कभी सट्टा भी नहीं लगाता।

गधा न तो धर्मांध है और न ही सांप्रादायिक। वह किसी मज़हब विशेष का राग भी नहीं अलापता। मंदिर-मस्जिद के झगड़े में भी नहीं पड़ता। वह क्षेत्रवाद का हिमायती भी नहीं है। उसके लिए सारी धरा की घास बराबर है। गधे की इच्छाओं का संसार भी बहुत बड़ा नहीं है। उसे न तो मोबाईल चाहिए, न टेलिविजन, न गाड़ी-बंगला, न गनमैन और न ही किसी क्लब की मैंबरशिप। गधा पैग भी नहीं लगाता। उसे तो दो जून का चारा मिल जाए तो उसी में खुश रहता है। गधे में आपको और क्या-क्या ख़ासियत चाहिए?

गधा कभी-कभार दुलत्ती तो मारता है लेकिन किसी को गोली तो नहीं मारता, बम नहीं फोड़ता, बारूदी सुरंगें नहीं बिछाता, डकैती नहीं डालता, रिश्वत नहीं लेता, बूथ कैप्चरिंग नहीं करता, घोटाले नहीं करता, रात के अंधेरे में कोई ऐसे-वैसे काम भी नहीं करता। फिर गधे को इतना प्रताड़ित क्यों किया जाता है?

गधे पर मैंने कोई फोकट में रिसर्च नहीं की। कितने ही गधों की संगत करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि गधा अनुकरणीय तो है ही, प्रात: स्मरणीय भी है। गधे के अपने आदर्श हैं, अपनी फिलॉसाफ़ी है, ज़िंदगी के अपने कुछ मापदंड हैं, सिद्धांत हैं। गधे को इज़्ज़त देकर, उसका अनुसरण कर हम एक सभ्य समाज की परिकल्पना को साकार कर सकते हैं। हमारे इस कदम का गधा कतई बुरा नहीं मानेगा। जब तक गधे को महज़ गधा ही आँका जाएगा, तब तक न तो समाज का भला होने वाला है, न देश का, न दुनिया का और न 'भाई लोगों' का।

Friday, 13 September 2013

और कितने हिंदुस्‍तानियों की मौत ?

यूपी में मुलायम पुराने किसान थे, दिन-रात मेहनत करके उन्होंने अपनी जमीन तैयार की थी... लेकिन एक वक्त आया जब उनके पुत्र ने राजनीतिक पौध संभाली और आजम खान जैसे दरबानों को देख-रेख के लिए सौंप दी। नतीजा आज, राज्य में दंगों की फसल लहलहा रही है। पूर्व में फैजाबाद, मध्य में लखनऊ, पश्चिम में मुजफ्फरनगर कुछ भी इससे अछूता नहीं...।
दंगों के 10 साल पुराने दाग से गुजरात की धरती आज तक डोलती है, लेकिन 27 अगस्त को कवाल गांव में फैली हिंसा के बाद लगभग एक हफ्ते तक किसी ने चूं की भी आवाज नहीं की। लेकिन जब मौत का आंकड़ा तीन से बढ़कर तीस के करीब जा पहुंचा तब सरकार की गंभीरता परवान चढ़ी। लाल बत्ती की सांय सांय, बूटों की आवाज, गोलियों के शोर और वर्दी वालों के साये ने हमेशा आबाद और गुलजार रहने वाले मुजफ्फरनगर को सन्नाटे की चादर में लपेट लिया । 
कोई कहता है हिंदू की मौत तो कोई कहता है मुसलमान की मौत । लेकिन शायद ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि हिंदू , मुसलमान से पहले वह एक हिंदुस्‍तानी है।



मैं यहां दंगे की वजहों पर प्रकाश नहीं डालना चाहता। लेकिन हकीकत जरूर बताना चाहूंगा। सिर्फ मुजफ्फरनगर ही नहीं यूपी के पश्चिमी जिलों में मेरठ, अलीगढ़, बिजनौर, बागपत, सहारनपुर में संवेदनशीलता तलवार की धार पर टिकी हुई है। एक चिंगारी मिली नहीं कि आदमी आदमी के खून का प्यासा हो उठता है। आज मुजफ्फरनगर में यही हो रहा है, गन्ने के बड़े बड़े खेतों में दंगाई छुपे बैठे हैं, गांव में घर जल रहे हैं और नहरों में लाश बह रही है। वोटों के मकड़जाल में उलझी सरकार ने समझा था कि उसकी सख्ती उसके राजनीतिक भविष्य पर हमला होगा। लेकिन इसी रवैये ने तलवार पर टिकी शांति को रौद्र रूप में पनपने का मौका दिया।

हम पाकिस्तान, चीन को खतरा मानते हैं, हम रिरियाते हैं, वह गुर्राते हैं... सरकार बाहर भी लड़ रही है और अंदर भी। आज देश की आंतरिक सुरक्षा बड़ा प्रश्न बन गई है। हमें सिर्फ नक्सलवाद को ही चुनौती के रूप में नहीं लेना चाहिए बल्कि सांप्रदायिकता, अलगाववाद, पृथकतावाद यह सभी कतार में खड़े होकर हमपर हमला कर रहे हैं। हमें सबसे बड़ा खतरा इन्हीं समस्याओं से है। धर्म के नाम पर हो रही यह हिंसा हमारा भविष्य बर्बाद कर रही हैं। जो नन्हें हाथ आज बम फेकेंगे (तस्वीर देखें), बंदूक चलाएंगे भला वह कल देश कैसे संभालेंगे? लेकिन शायद यही हमारी नियति है जिसे हमें देखना भी होगा और उसके साथ जीना भी होगा। नतीजा, जिस तरह दिल्ली करप्शन, अर्थव्यवस्था, सुरक्षा हर मोर्चे पर फेल है, ठीक वैसे ही लखनऊ भी उसकी बराबरी करने को आतुर दिखाई पड़ता है।

सत्ता को अपने हर कदम को वोट बैंक के तराजू में तौलने की आदत से दूर होना होगा।  सांप्रदायिकता और सेक्युलरवाद की गढ़ी हुई परिभाषा उसी दिन तक जीवित है जब तक हम इसे जीवित रखे हुए हैं। वरना बहन के साथ बदतमीजी और विरोध की लड़ाई में भाइयों की मौत का किस्सा कम से कम हमारे लिए नया तो नहीं...

Wednesday, 10 April 2013

क्या सुन्दरता का अर्थ सेक्सी है?

स्त्री सृष्टि की अद्वितीय कृति है। वह सौंदर्य का पर्याय है। मेरा सदैव मत रहता है- दुनिया में कोई भी स्त्री असुंदर नहीं। अंतर मात्र इतना है कि कोई कम सुंदर है और कोई अधिक सुंदर। भारतीय संस्कृति में स्त्री के चित्र सदैव सुरूप दिखाए गए। उसे नग्न करने की जब-जब कोशिश हुई, समाज ने तीव्र विरोध जताया। तथाकथित महान चित्रकार एमएफ हुसैन ‘ स्त्री को नग्न ‘ दिखाने की विकृत मानसिकता के चलते ही देश छोडने पर मजबूर हुए। वे अपनी गलती स्वीकार कर बदलने को तैयार नहीं थे और देश उन्हें झेलने को तैयार नहीं था। भारत में स्त्री को सौंदर्य की प्रतिमा माना गया। उसे ‘देवी’ कहकर संबोधित किया गया। सुंदरी पुकारा गया। रूपमति कहा गया। हिरण जैसी खूबसूरत आंखों वाली स्त्री को कवि ने मृगनयनी कहा। उसकी दैहिक नाजुकता और कोमलता का निरुपण फूलों से तुलना कर किया गया। पद्मिनी कहा गया। मनीषियों ने उसे दिव्य प्रकाश के समकक्ष रखकर उज्ज्वला कहा। सब उत्तम कोटि के शब्द हैं। कोई शब्द ओछा नहीं, जो स्त्री के सम्मान में गुस्ताखी की जुर्रत कर सके। कोई भी शब्द उसके शरीर को नहीं उघाड़ता। एक भी शब्द स्त्री को यौन प्रतीक नहीं बनाता। भारत में सुन्दरता के संदर्भ में कभी भी स्त्री को ‘सेक्सी ‘ कहकर संबोधित नहीं किया गया। ‘सेक्सी’ शब्द का यौनिक अभिव्यक्ति के लिए जरूर उपयोग किया जाता रहा है। अंग्रेजी शब्दकोश में भी ‘सेक्‍सी’ का अर्थ काम भावना से संबंधित लिखा है। वहीं सुन्दरता के लिए तमाम शब्द है- लवली, ब्यूटीफुल, प्रिटी, स्वीट, डिवाइन, फेयरी, ग्रेसफुल, फाइन इत्यादि। सुन्दर का पर्याय सेक्सी नहीं है। वहीं हिन्दी के शब्दकोश में भी सुन्दर के लिए कई मनोहारी शब्द हैं – शोभन, अच्छा, भला, खूबसूरत, प्यारा, दिव्य, उत्कृष्ट, मधुर इत्यादि। सुन्दर का मतलब सेक्सी कहीं नहीं मिला।
स्त्री को भोग वस्तु मानने वालों को, स्त्री को वासना की दृष्टि से देखने वालों को और उससे अशोभनीय भाषा में बात करने वालों को भारतीय समाज लंपट कहता है। भारत में स्त्री के लिए सेक्सी शब्द सुन्दरता का पर्याय नहीं। लेकिन, राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा ने लड़कियों को सलाह दी है कि वे लड़कों के द्वारा बोले जाने वाले सेक्सी शब्द को नकारात्मक ढंग से न लें और बुरा न मानें। इतका मतलब सुन्दरता होता है। मोहतरमा ने यह बात महिला सशक्तिकरण और महिलाओं के सुनहरे भविष्य को लेकर आयोजित सेमिनार में कही। सुन्दरता की इस परिभाषा पर बिना देर किए हंगामा भी बरपा। पुरुषवादी और महिलावादी संगठनों ने महिला आयोग की अध्यक्ष के बयान का तीव्र विरोध भी जताया था । भौंह तानी। तमाम स्वतंत्र विचारकों, समाजसेवियों और संगठनों ने महिला आयोग की अध्यक्ष के इस बयान को ‘स्त्रियों से छेड़छाड़’ को बढ़ावा देने वाला माना। आंशिक तौर पर यह सच भी है। ऐसे में इस बयान के बाद से तो मनचले, सड़कछाप मजनू और आवारगी करते लड़के ‘हे सेक्सी’ कहकर लड़कियों को सरेराह छेड़ेंगे। लड़की आंख तरेरेगी तो कह भी सकेंगे- तुम्हारे अधिकारों के संरक्षण के लिए बैठी महिला ने कहा है कि सेक्सी का मतलब सुन्दरता है। तुम कोई और अर्थ न लगाओ।
एक सवाल मेरी तरफ से महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा से है – वे लड़कों की मेंटैलिटी (मनोवृत्ति) को कितना समझती हैं, जो वे इस निष्कर्ष पर पहुंच गईं कि लड़के किसी लड़की की सुन्दरता की तारीफ में ही ‘सेक्‍सी’बोलते हैं? भारत में 99 फीसदी लड़के या पुरुष सुन्दरता की तारीफ में लड़की को सेक्सी नहीं कहते। बेहद खूबसूरत लड़कियों को वे अप्सरा या परी बुलाते हैं। किसी लड़की को सेक्सी कहकर संबोधित करने के पीछे उनकी लंपटता और कामुकता होती है। शरारती मंशा होती है। सेक्सी यौनांग से जुड़ा शब्द है। इसलिए सेक्सी यौन अभिव्यक्ति ही है। यौनांग से जुड़े शब्दों से भारत में कभी भी स्त्री को सम्मान नहीं दिया गया बल्कि उसे अपमानित जरूर किया गया है। यही कारण है कि भारत में आम स्त्री सार्वजनिक स्थल पर सेक्सी संबोधन को अपमान, गाली और छेड़छाड़ के रूप में ही लेती है। अगर किसी मां से अगर पूंछा जाए कि आपका बेटा आपको सेक्सी कहकर बुलाएगा तो क्या करोगी? उनका सीधा-सपाट जवाब होगा- ऐसे संस्कार हमने अपने बच्चों को नहीं दिए हैं। यदि बाहर से इस तरह की बातें वे सीखकर आएंगे तो उन्हें सीख दी जाएगी। वहीं, किसी पिता से अगर पूंछा जाए कि क्या तुम अपनी बेटी को कह सकते हो कि बेटी आज तू बहुत सेक्सी लग रही है? यहां भी वही जवाब मिलेंगे। यह हमारी संस्कृति नहीं।
सच है, हमारे यहां सुन्दरता के मायने सेक्सी लगना नहीं है। सुन्दरता को बहुत ऊंचा स्थान हमने दिया है। हालांकि एकाध फीसदी ऐसे लागों की जमात भारत में जमा हो चुकी है। जहां मां अपने बेटे से सेक्सी मॉम सुनकर फूलकर कुप्पा हो जाए और बाप बेधड़क अपनी बेटी को सेक्सी कह दे। संभवतः महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा ऐसी ही किसी जमात से आती हैं। लेकिन, उन्हें समझना होगा – भारत अभी उतना विकृत नहीं हुआ है। बाजारवाद के तमाम षड्यंत्रों के बाद भी भारत में आज भी स्त्री महज सेक्स सिंबल नहीं है। भारत में अब भी स्त्री त्याग का प्रतीक है, शक्ति का पुंज है, पवित्रता की मूरत है।
 

Saturday, 9 February 2013

अगर भारत -पाक युद्ध हुआ तो……

नियंत्रण रेखा के पास जम्मू के पूंछ इलाके में घुसकर पाकिस्तानी सेना ने दो भारतीय जवानों की हत्या और उनमें से एक के सिर काटकर अपने साथ ले जाने की घटना के बाद सीमा पर भारी तनाव हो गया है। पाकिस्तानी सेना के इस जघन्य कृत्य से देश में भी पाकिस्तान के खिलाफ जबरदस्त गुस्सा है। भारत में जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। बावजूद इसके नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम का उल्लंघन लगातार जारी है। पाकिस्तान की इस विद्वेषात्मक कार्रवाई को लेकर भारतीय रक्षा मंत्री एके एंटनी समेत सेनाध्यक्षों ने भी रोष जताया है। एयर चीफ मार्शल एन.ए.के. ब्राउन ने तो यहां तक कह डाला कि अगर संघर्ष विराम का उल्लंघन जारी रहा तो दूसरे विकल्पों पर विचार किया जा सकता है। इससे साफ है अगर पाकिस्तान अपनी हदें इसी तरह से पार करता रहा तो भारत पाकिस्तान से एक और युद्ध लड़ने से परहेज नहीं करेगा।

भारत हमेशा की तरह शांति का पक्षधर रहा है, लेकिन पाकिस्तान शांति की आड़ में भारतीय सेना पर फायरिंग करता रहा है। पिछले तीन साल में पाक ने करीब 200 से ज्यादा बार संघर्ष विराम का उल्लंघन किया गया है। जबकि नवंबर 2003 में संघर्ष विराम की घोषणा की गई थी। जाहिर है पाकिस्तान की नीयत में खोट है। पाकिस्तान से जब-जब रिश्ते सुधारने की बात होती है, तब-तब पाकिस्तान का दोहरा चरित्र सामने आता है। 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए लाहौर यात्रा की। ऐसा लगा, दोनों देशों ने पुराने कटुता को भुला दिया। अमन-चैन का वातावरण कायम हो गया। लेकिन पाक सेना के दिल में तो कुछ और ही चल रहा था। उसने सर्दियों के मौसम में घुसपैठ जारी रखा। फलस्वरूप 1999 में करगिल युद्ध हुआ। उसके बाद पाकिस्तान के साथ कई वर्षों तक क्रिकेट और राजनयिक संबंध खत्म कर दिए गए, लेकिन कई वर्षों बाद रिश्तों को फिर पटरी पर लाने की कोशिश की गई और संबंध सामान्य हुए। इस बीच पाक पोषित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैय्यबा ने 26/11 के मुंबई हमले को अंजाम दिया। फिर रिश्ते में खटास आ गई। किक्रेट संबंध समेत सारे रिश्ते समाप्त कर दिए गए। किन्तु दुनिया के देशों ने इस घटना की निंदा करते हुए एशिया में शांति कायम करने के लिए भारत को पाक से फिर बातचीत के जरिए रिश्तों को बेहतर बनाने की अपील की।
इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए भारत ने पाकिस्तान के साथ बातचीत शुरू की। सचिव स्तर, विदेश मंत्री के स्तर तक कई दौर की वार्ता हुई। भारत के विदेश मंत्री पाकिस्तान गए। पाक के विदेश मंत्री भारत आए। एक बार फिर रिश्तों की मिठास फिजा में घुलने लगी। पाकिस्तान से क्रिकेट संबध बहाल हुए। पाक क्रिकेट टीम ट्वेंटी-20 और वनडे सीरीज खेलने के लिए भारत दौरे पर आई। भारतीय दर्शकों ने पाक क्रिकेटरों को सर आंखों पर बैठाया। पीसीबी अध्यक्ष जका अशरफ भारतीय दर्शकों की प्रशंसा के पुल बांधते हुए कहा, ‘भारत की मेजबानी से हम गदगद हो गए।‘ इससे पहले पाक के आंतरिक मंत्री रहमान मलिक भी भारत दौरे पर आए। उन्होंने भी रिश्ते को सुधरने की बात कही।
इसके बाद अचानक से वर्ष 2013 के पहले हफ्ते में पाकिस्तानी सेना ने संघर्ष विराम का उल्लंधन करते हुए भारतीय सीमा में घुसकर फायरिंग शुरू कर दी। हमले में भारत के दो जवान लांसनायक हेमराज और सुधाकर सिंह शहीद हो गए। उधर, पाक में रह रहे मुंबई आतंकवादी हमले का मास्टरमाइंड हाफिज सईद ने भारत के खिलाफ जहर उगलते हुए कश्मीर में हमले की धमकी दे डाली। इससे दोनों देशों के बीच फिर से रिश्ते में खटास आ गई। अगर पाक इसी तरह से संघर्ष विराम का लगातार उल्लंघन करता रहा तो फिर भारत को इसका कड़ा जवाब देना पड़ेगा और देना भी चाहिए। लेकिन अगर दोनों देशों के बीच युद्ध के हालात पैदा हुए तो भारत को भी यह देखना होगा कि देश के आंतरिक हालात व वैश्विक स्तर पर माहौल कितने माकूल हैं।
पूरी दुनिया को पता है कि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के पास परमाणु हथियार हैं। इस बात की भी आशंका जताई जा रही है कि अगर इस बार भारत-पाक में युद्ध हुआ तो परमाणु हथियार का इस्तेमाल हो सकता है। ऐसे में हिरोशिमा और नागासाकी के बाद दक्षिण एशिया में सबसे बड़ा नरसंहार होगा जिसका खामियाजा पूरी दुनिया को भुगतना होगा। अमेरिकी रक्षा विभाग के थिंक टैक का कहना है कि भारत-पाकिस्तान के बीच जम्मू-कश्मीर में चल रही आतंकी गतिविधियों की वजह से संघर्ष बढ़ेगा, जो परमाणु युद्ध में बदल जाएगा। इसके अलावा कई विदेशी सुरक्षा एजेंसियों ने भी चिंता जताई है कि पाक के परमाणु हथियार कट्टरपंथियों और आतंकियों के हाथ लगने से विश्व को खतरा होगा।
भारत-पाक में युद्ध हुआ तो जम्मू कश्मीर के अलगाववादी संगठन पाकिस्तान में स्थापित आतंकी संगठन अलकायदा, लश्कर-ए-तैय्यबा और तालिबान से मदद लेकर भारतीय सुरक्षा बलों पर हमले तेज कर सकते हैं। युद्ध की स्थिति में देश में आंतरिक हमले भी तेज हो सकते हैं। नक्सली इस मौके का फायदा उठाकर लाल गलियारा स्थापित करने की कोशिश करेंगे जिसे विदेशी ताकतों की मदद मिल सकती है। हाल में लातेहार में हुए नक्सली हमले में पाक निर्मित हथियार मिले थे जिससे नक्सली को पाकिस्तानी मदद की पुष्टि होती है। उत्तर पूर्व में बरसों से अलगाववादी संगठन अशांति फैलाए हुए हैं। युद्ध की हालात में सेना का ध्यान आंतरिक सुरक्षा से हटेगा और ये संगठन विदेशी आतंकी संगठनों की सहायता से अपनी गतिविधियां तेज कर सकते हैं। उल्फा जैसे उग्रवादी संगठन पुनः सक्रिय हो सकते हैं। पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा और मणिपुर राज्यों में बांग्लादेशी आतंकवादी घुसपैठ कर सकते हैं। इसके अलावा समुद्री सीमा से भी आतंकी घुसपैठ की कोशिश करने की आशंका प्रबल है।
भारत-पाक युद्ध होने पर अमेरिका को अफगानिस्तान में अपनी सेना की संख्या में इजाफा करना होगा। जो शायद अब मुमकिन नहीं होगा क्योंकि अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी सेना धीरे-धीरे हटा रहा है। इसका फायदा उठाकर भारत विरोधी आफगानिस्तान और पाकिस्तान के आतंकी संगठन कश्मीर में घुसपैठ कर भारतीय सेना के लिए मुसीबत पैदा कर सकते हैं। युद्ध होने की स्थिति में अफगानिस्तान में तैनात नाटो सेना के लिए ज्यादातर सैन्य सामग्री पाक बंदरगाहों और पेशावर के सैन्य डिपो से ही अफगानिस्तान पहुंचाया जाता है। अगर युद्ध हुआ तो इन हथियारों का उपयोग पाकिस्तान भारत के विरुद्ध कर सकता है।
कहने का तात्पर्य यह कि अगर भारत-पाक में युद्ध हुआ तो भारतीय हुक्मरान को उक्त परिस्थितियों से निपटने के पूरे इंतजाम पहले से होने चाहिए ताकि युद्ध के दौरान हमारी सेना खुद को मुख्य दुश्मन पर फोकस कर सके। पड़ोसी देशों से युद्ध की स्थिति में अगर देश की आंतरिक हालत दुरुस्त नहीं होने पर हम लड़ाई में कमजोर पड़ सकते हैं। हालांकि हम यह नहीं कर रहे कि भारत को पाकिस्तान से दो-दो हाथ कर ही लेना चाहिए। निश्चित रूप से हम युद्ध से परहेज करें लेकिन अगर भारत को युद्ध करना ही पड़े तो उपर्युक्त बातों पर अवश्य गौर किया जाना चाहिए।

Saturday, 5 January 2013

कुटुम्ब कलह....


नानी कहा करती थी-लाला! कुटुम्ब की कलह बरबादी की जड़ है। गृहयुद्ध से अच्छा-अच्छा घर धूल में मिल गया। बूढ़ी नानी की बात सोलह आना सच्ची है। खरे सोने सी टंच। यक्ष प्रश्न है कि इस बात को सब जानते हैं फिर भी लड़ते हैं। अब देखो महान नैतिकतावादी, शुचितावादी, शुद्धतावादी पार्टी में लड़ाई हो रही है। आलाकमान की कोई मान नहीं रहा। बेचारा आलाकमान आला तरीकों से पैंतरे बदल रहा है। कारण क्या है? दरअसल यह सारा युद्ध टोटे का है। लोकतंत्र में टोटे का मतलब है सत्ता से बाहर होना।
अब कोई इन नेताओं से पूछे कि भैयाजी जब आप राजनीति में सेवा के लिए ही उतरे हैं तो क्या फर्क पड़ता है कि आप कुर्सी के भीतर हैं या कुर्सी से बाहर, लेकिन सच यह है कि सत्ता से बाहर पड़े आदमी की कद्र दो कौड़ी की नहीं है। कल तक तो दलालों के आका थे; पार्टी के काका थे, चमचों की आंख के तारे थे, नौकरशाही के सितारे थे, अपनी मर्जी के राजा थे, विरोधियों का बजा देते बाजा थे। वे आज एक्सीडेन्ट में भिड़ी कार की तरह चकनाचूर हैं। राजनीति में दो तरह के नेता होते हैं। पहले जो सत्ताधारी हैं, दूसरे जो सत्ता से बाहर हैं। सत्ता में रहते नेता के पास सत्तर काम होते हैं। उसे अपने-अपने भाई-भतीजों, कुटुम्ब, पार्टी चापलूसों के तरह-तरह के काम करने पड़ते हैं। उसे अपने भविष्य को देख कर काम करने होते हैं। शतरंज की बिसात पर खड़े मोहरों की तरह अधिकारियों को बदलना पड़ता है। किसी से माल खींचना पड़ता है। आलाकमान तक माल पहुंचाना पड़ता है। सत्ता से अलग होते ही वह ठाला हो जाता है। उसकी हालत सरकारी नौकरी से रिटायर हुए बाबू से भी बदतर हो जाती है। रिटायर बाबूजी तो दस लाख अंटी में लेकर घर गृहस्थी संवारने और तीर्थयात्रा करने में जुट जाते हैं, पर सत्ता से बाहर नेता तो करोड़ों होते हुए भी “बेचारा” हो जाता है। जिस बंगले पर दिन- रात भीड़ रहती थी उसकी तरफ अब कोई देखता तक नहीं।
सत्ता के दिनों में सांस लेने की फुरसत नहीं मिलती थी। अब दिन में हजार मक्खी मारने के बाद भी दस हजार और मार लो जितना वक्त बचा रहता है। दरअसल सत्ता इतनी मादक होती है कि कुर्सी छूटने के बाद भी उसका नशा टूटे नहीं टूटता। ऎसे में आदमी कुटुम्ब कलह करता है। जिस शराबी का मोहल्ले में जोर नहीं चलता वह घर में आकर मारपीट करता है। राजनीतिक दलों में यही होता है और यही हो रहा है। आपस में ही लड़ रहे हैं।
इस कलह का मजा सत्ताधारी ले रहे हैं। ऊपर से तो मौन हैं पर इस मौन में एक अट्टहास छिपा है। पूछो तो कहेंगे कि यह उनके भीतर का मसला है। हमें क्या लेना-देना। लेकिन लेना-देना पूरा है। पड़ोसी के घर लट्ठ चल रहा हो तो दूसरा पड़ोसी सुट्ट का आनंद उठाता है। इस कुटुम्ब कलह से वह कार्यकर्ता दुखी है जो बेचारा पार्टी के लिए पसीने बहाता है। पब्लिक में जाता है। वोट दिलाता है और फिर सत्ताधारियों के बंगलों पर धक्के खाता है। वाह रे राजनीति। वाह।