दिल्ली की राजनीति गुड़गुड़-गुड़गुड़ कर रही है ।क्या आपको भी सुनाई दिया ? त्रिकोणीय मुकाबले गुड़ को अक्सर गोबर बना ही देते हैं। तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा की कहावत चरितार्थ हो गई । बीजेपी, कांग्रेस और आआप की तीन-तिकड़म से तो राजनीति भी हार गई साहिब । तीनों ने कंफ्यूज ही कर दिया है इसे।
वैसे इस सबसे इतर कुछ सवाल हैं -
सरकार न बनने से नुकसान किसका हो रहा है ? विकास की दर और रफ्तार कहां के धीमे होने से खामियाजा किसे भुगतना पड़ रहा है ? जिन उम्मीदों से वोट डाला था, उनका एग्ज़ीक्यूशन न होने से निराश किसे होना पड़ रहा है? कौन पिछड़ रहा है ? ऐसे दोराहे पर खड़ी जीत से हार कौन रहा है ? राजनीति से कुछ भला होने को लेकर ख्याली पुलाव कौन पका रहा है ?
इन सभी प्रश्नों का सीधा सा जवाब है - जनता उर्फ वोटर्स उर्फ मासूम आम आदमी । राजनीति के चोंचले और दांवपेंच हम नहीं जानते । ये तो वो राजनीति मठाधीशों का काम है न ! यही है राजनति का ट्रेडिशनल (पारंपरिक
) पैटर्न । इस पैटर्न का यू टर्न अगर कभी हुआ तो उम्मीदों के सूरज पर रोटियां सेंकने की ख्वाहिशें पाल सकते हैं । वर्ना , कहने को तो सूरज है लेकिन क्या फायदा इसकी गर्मी का जब हम(जनता) इस पर अपनी रोटियां तक नहीं सेक सकते ! राजनीति का सूरज हमेशा की तरह इस बार भी अपने लिए ही रोटियां सेंक रहा है । इसमें चमत्कार या बदलाव की बात कहां से आ गई !
केजरीवाल ने शर्तों की जो वॉल बनाई है ,उसे तोड़ने का माद्दा या साहस न बीजेपी करती दिख रही है और न ही कांग्रेस । अंबूजा सीमेंट से बनी होगी शायद । चुनाव से पहले जिस कुर्सी को पाने के लिए करोड़ो रूपये लुटाए गए , आज उसी कुर्सी पर बैठने को कोई दल तैयार नहीं है। ये तो विडंबना की पराकाष्ठा है ! हो सकता है कि इसमें कांट निकल आए हों ! चौंकिए मत ! राजनीति में सब कुछ संभावित है।
कुर्सी के पद के लिए दो दल उभरे हैं । आआप और बीजेपी । ऐसे में आआप शर्तों की बिसात पर राजनीति का दांव क्यों चल रही है ? दिल्ली के कीचड़ में कमल खुद को खिलने से क्यों रोक रहा है ? आइये जनाब, आप ही आइये । शाइनिंग इंडिया न सही कम से कम शाइनिंग दिल्ली को ही हक़ीकत का अमली जामा पहना दीजिए । आइये ता सही । कुर्सी संभालिए तो सही ।
हैलो, कांग्रेस । तुम तो कम से कम न ही फुदको इतना । तुम एक्स्ट्रा प्लेयर हो चुके हेा अब । इस खेल(चुनाव) में तुम्हें खिला तो लिया , लेकिन हमने(गैर कांग्रेसी दल) बताया नहीं कि तुम्हारी कच्ची है ।
कोई भी गठबंधन या समझौते की राजनीति नहीं करना चाह रहा है । पूरी मलाई खुद ही चखना चाहता है हर कोई । ऐसे में गठबंधन की राजनीति बहुमत की राजनीति से कहीं बेहतर लगने लगती है । शक़ होता है कि , अकेले रहेंगे तो किसी का दबाव नहीं होगा । जो मर्जी होगी वही करेंगे । वगैरह वगैरह ।
मन ही मन हर दल कुर्सी पाना चाहता है । बावजूद इसके कोई भी दल गठबंधन के दलदल में नहीं फंसना चाहता है।
ऐसे में हमें अपनी चिर-परिचित क्रिया करनी चाहिए । ये है - लेट्स वेट एण्ड वॉच । यही तो करते आ रहे है आज़ादी के बाद से ।
वैसे इस सबसे इतर कुछ सवाल हैं -
सरकार न बनने से नुकसान किसका हो रहा है ? विकास की दर और रफ्तार कहां के धीमे होने से खामियाजा किसे भुगतना पड़ रहा है ? जिन उम्मीदों से वोट डाला था, उनका एग्ज़ीक्यूशन न होने से निराश किसे होना पड़ रहा है? कौन पिछड़ रहा है ? ऐसे दोराहे पर खड़ी जीत से हार कौन रहा है ? राजनीति से कुछ भला होने को लेकर ख्याली पुलाव कौन पका रहा है ?
इन सभी प्रश्नों का सीधा सा जवाब है - जनता उर्फ वोटर्स उर्फ मासूम आम आदमी । राजनीति के चोंचले और दांवपेंच हम नहीं जानते । ये तो वो राजनीति मठाधीशों का काम है न ! यही है राजनति का ट्रेडिशनल (पारंपरिक
) पैटर्न । इस पैटर्न का यू टर्न अगर कभी हुआ तो उम्मीदों के सूरज पर रोटियां सेंकने की ख्वाहिशें पाल सकते हैं । वर्ना , कहने को तो सूरज है लेकिन क्या फायदा इसकी गर्मी का जब हम(जनता) इस पर अपनी रोटियां तक नहीं सेक सकते ! राजनीति का सूरज हमेशा की तरह इस बार भी अपने लिए ही रोटियां सेंक रहा है । इसमें चमत्कार या बदलाव की बात कहां से आ गई !
केजरीवाल ने शर्तों की जो वॉल बनाई है ,उसे तोड़ने का माद्दा या साहस न बीजेपी करती दिख रही है और न ही कांग्रेस । अंबूजा सीमेंट से बनी होगी शायद । चुनाव से पहले जिस कुर्सी को पाने के लिए करोड़ो रूपये लुटाए गए , आज उसी कुर्सी पर बैठने को कोई दल तैयार नहीं है। ये तो विडंबना की पराकाष्ठा है ! हो सकता है कि इसमें कांट निकल आए हों ! चौंकिए मत ! राजनीति में सब कुछ संभावित है।
कुर्सी के पद के लिए दो दल उभरे हैं । आआप और बीजेपी । ऐसे में आआप शर्तों की बिसात पर राजनीति का दांव क्यों चल रही है ? दिल्ली के कीचड़ में कमल खुद को खिलने से क्यों रोक रहा है ? आइये जनाब, आप ही आइये । शाइनिंग इंडिया न सही कम से कम शाइनिंग दिल्ली को ही हक़ीकत का अमली जामा पहना दीजिए । आइये ता सही । कुर्सी संभालिए तो सही ।
हैलो, कांग्रेस । तुम तो कम से कम न ही फुदको इतना । तुम एक्स्ट्रा प्लेयर हो चुके हेा अब । इस खेल(चुनाव) में तुम्हें खिला तो लिया , लेकिन हमने(गैर कांग्रेसी दल) बताया नहीं कि तुम्हारी कच्ची है ।
कोई भी गठबंधन या समझौते की राजनीति नहीं करना चाह रहा है । पूरी मलाई खुद ही चखना चाहता है हर कोई । ऐसे में गठबंधन की राजनीति बहुमत की राजनीति से कहीं बेहतर लगने लगती है । शक़ होता है कि , अकेले रहेंगे तो किसी का दबाव नहीं होगा । जो मर्जी होगी वही करेंगे । वगैरह वगैरह ।
मन ही मन हर दल कुर्सी पाना चाहता है । बावजूद इसके कोई भी दल गठबंधन के दलदल में नहीं फंसना चाहता है।
ऐसे में हमें अपनी चिर-परिचित क्रिया करनी चाहिए । ये है - लेट्स वेट एण्ड वॉच । यही तो करते आ रहे है आज़ादी के बाद से ।
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