यूपी में मुलायम पुराने किसान थे, दिन-रात मेहनत करके उन्होंने अपनी जमीन तैयार की थी... लेकिन एक वक्त आया जब उनके पुत्र ने राजनीतिक पौध संभाली और आजम खान जैसे दरबानों को देख-रेख के लिए सौंप दी। नतीजा आज, राज्य में दंगों की फसल लहलहा रही है। पूर्व में फैजाबाद, मध्य में लखनऊ, पश्चिम में मुजफ्फरनगर कुछ भी इससे अछूता नहीं...।
दंगों के 10 साल पुराने दाग से गुजरात की धरती आज तक डोलती है, लेकिन 27 अगस्त को कवाल गांव में फैली हिंसा के बाद लगभग एक हफ्ते तक किसी ने चूं की भी आवाज नहीं की। लेकिन जब मौत का आंकड़ा तीन से बढ़कर तीस के करीब जा पहुंचा तब सरकार की गंभीरता परवान चढ़ी। लाल बत्ती की सांय सांय, बूटों की आवाज, गोलियों के शोर और वर्दी वालों के साये ने हमेशा आबाद और गुलजार रहने वाले मुजफ्फरनगर को सन्नाटे की चादर में लपेट लिया ।
कोई कहता है हिंदू की मौत तो कोई कहता है मुसलमान की मौत । लेकिन शायद ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि हिंदू , मुसलमान से पहले वह एक हिंदुस्तानी है।
मैं यहां दंगे की वजहों पर प्रकाश नहीं डालना चाहता। लेकिन हकीकत जरूर बताना चाहूंगा। सिर्फ मुजफ्फरनगर ही नहीं यूपी के पश्चिमी जिलों में मेरठ, अलीगढ़, बिजनौर, बागपत, सहारनपुर में संवेदनशीलता तलवार की धार पर टिकी हुई है। एक चिंगारी मिली नहीं कि आदमी आदमी के खून का प्यासा हो उठता है। आज मुजफ्फरनगर में यही हो रहा है, गन्ने के बड़े बड़े खेतों में दंगाई छुपे बैठे हैं, गांव में घर जल रहे हैं और नहरों में लाश बह रही है। वोटों के मकड़जाल में उलझी सरकार ने समझा था कि उसकी सख्ती उसके राजनीतिक भविष्य पर हमला होगा। लेकिन इसी रवैये ने तलवार पर टिकी शांति को रौद्र रूप में पनपने का मौका दिया।
हम पाकिस्तान, चीन को खतरा मानते हैं, हम रिरियाते हैं, वह गुर्राते हैं... सरकार बाहर भी लड़ रही है और अंदर भी। आज देश की आंतरिक सुरक्षा बड़ा प्रश्न बन गई है। हमें सिर्फ नक्सलवाद को ही चुनौती के रूप में नहीं लेना चाहिए बल्कि सांप्रदायिकता, अलगाववाद, पृथकतावाद यह सभी कतार में खड़े होकर हमपर हमला कर रहे हैं। हमें सबसे बड़ा खतरा इन्हीं समस्याओं से है। धर्म के नाम पर हो रही यह हिंसा हमारा भविष्य बर्बाद कर रही हैं। जो नन्हें हाथ आज बम फेकेंगे (तस्वीर देखें), बंदूक चलाएंगे भला वह कल देश कैसे संभालेंगे? लेकिन शायद यही हमारी नियति है जिसे हमें देखना भी होगा और उसके साथ जीना भी होगा। नतीजा, जिस तरह दिल्ली करप्शन, अर्थव्यवस्था, सुरक्षा हर मोर्चे पर फेल है, ठीक वैसे ही लखनऊ भी उसकी बराबरी करने को आतुर दिखाई पड़ता है।
सत्ता को अपने हर कदम को वोट बैंक के तराजू में तौलने की आदत से दूर होना होगा। सांप्रदायिकता और सेक्युलरवाद की गढ़ी हुई परिभाषा उसी दिन तक जीवित है जब तक हम इसे जीवित रखे हुए हैं। वरना बहन के साथ बदतमीजी और विरोध की लड़ाई में भाइयों की मौत का किस्सा कम से कम हमारे लिए नया तो नहीं...
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