Sunday, 13 September 2015
Wednesday, 19 August 2015
नरेंद्र मोदी का अरब दौरा, इशारा किस ओर ?
आपने कभी देखा होगा कि मक्खी पूरे शरीर को छोड़कर केवल जख्म पर ही बैठती
है, चाहे वो कितना भी छोटा क्यों न हो, कुछ ऐसा ही मोदी विरोधियों का हाल
है, जो मोदी जी के बड़े-बड़े कामों में भी छोटा सा नुक्स निकाल कर ही
हुड़दंग करते रहते है, फिर उन्हें इस बात से मतलब नहीं रहता कि उनके इस
हुड़दंग का देश को कितना नुकसान हो सकता है । मोदी जी की अमीरात यात्रा
अपने अन्दर बहुत से अर्थ समेटे हुए है, इसका भारतीय राजनीति,अर्थनीति और विदेश नीति पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है, बशर्ते भारत की अन्दरूनी राजनीति इसके आड़े न आये। अगर हम न देखना चाहे तो अलग बात है, लेकिन यह यात्रा हमारे देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है ।
है, चाहे वो कितना भी छोटा क्यों न हो, कुछ ऐसा ही मोदी विरोधियों का हाल
है, जो मोदी जी के बड़े-बड़े कामों में भी छोटा सा नुक्स निकाल कर ही
हुड़दंग करते रहते है, फिर उन्हें इस बात से मतलब नहीं रहता कि उनके इस
हुड़दंग का देश को कितना नुकसान हो सकता है । मोदी जी की अमीरात यात्रा
अपने अन्दर बहुत से अर्थ समेटे हुए है, इसका भारतीय राजनीति,अर्थनीति और विदेश नीति पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है, बशर्ते भारत की अन्दरूनी राजनीति इसके आड़े न आये। अगर हम न देखना चाहे तो अलग बात है, लेकिन यह यात्रा हमारे देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है ।
मोदी जी की इस यात्रा को मीडिया का पूरा कवरेज मिला, जो कि उनकी सोवियत संघ से निकले हुए देशों की यात्रा को नहीं मिला था, वो यात्रा भी मुस्लिम देशों की थी, लेकिन सऊदी अरब की यात्रा के अलग मायने है । सऊदी अरब सबसे महत्वपूर्ण खाड़ी देश है, इसके साथ अच्छे सम्बन्ध बनाकर मोदी जी दूसरे देशों खाड़ी देशो के साथ भी सम्बन्ध सुधारना चाहते हैं । सऊदी अरब का महत्व इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि एक तरफ तो ये अमरीका का महत्वपूर्ण सहयोगी है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान को मददगार भी । सऊदी अरब और अमरीका
दोनों ही पाकिस्तान को भारी वित्तीय मदद देते है, इसलिए पाकिस्तान से निबटने के लिये हमें अमेरिका के साथ-साथ सऊदी अरब को भी अपने पाले में लाना होगा तभी पाकिस्तान की नापाक हरकतों पर लगाम लगायी जा सकती है । इस यात्रा में मोदी जी ने सऊदी अरब की धरती से ही सऊदी अरब के साथ साँझा बयान जारी करके पाकिस्तान को उसकी हरकतों के लिये कड़ी चेतानवी दी है । गुड तालीबान और बैड तालीबान के लिए भी चेताया है ।
दोनों ही पाकिस्तान को भारी वित्तीय मदद देते है, इसलिए पाकिस्तान से निबटने के लिये हमें अमेरिका के साथ-साथ सऊदी अरब को भी अपने पाले में लाना होगा तभी पाकिस्तान की नापाक हरकतों पर लगाम लगायी जा सकती है । इस यात्रा में मोदी जी ने सऊदी अरब की धरती से ही सऊदी अरब के साथ साँझा बयान जारी करके पाकिस्तान को उसकी हरकतों के लिये कड़ी चेतानवी दी है । गुड तालीबान और बैड तालीबान के लिए भी चेताया है ।
सऊदी अरब से भारी निवेश का वादा लेकर मोदी जी भारतीय जनता से किये गये अपने वादे पूरे करना चाहते है, क्योंकि वो वादे बिना विदेशी निवेश के सम्भव नहीं हो सकते और उनके पास निवेश के लिए काफी पैसा है । उन्हें भवन निर्माण में विशेषज्ञता हासिल है, जिसका हम फायदा उठा सकते हैं, क्योंकि आने वाले वर्षों में हमें अपनी जनता के लिये करोड़ो घरों का निर्माण करना ही होगा । एक अनुमान के अनुसार हमारे 23 लाख लोग इस देश में निवास करते हैं, जिन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, अगर शीर्ष स्तर पर हमारे सम्बन्ध अच्छे होंगे तो उनकी समस्याओं को हल करना आसान होगा । इस देश में ज्यादातर भारतीय मजदूरी करते हैं और बहुमूल्य विदेशी मुद्रा भारत भेजते है, जो कि हमें तेल आयात करने के काम आती है । अगर भारत से बाहर बसे भारतीय हमें पैसा न भेजे तो अपने विदेशी मुद्रा भण्डार की हालत आप सोच भी नहीं सकते । इस प्रकार ये लोग महत्वपूर्ण देशसेवा कर रहे हैं, इनकी अनदेखी अच्छी बात नहीं होगी ।
सबसे ज्यादा हल्ला मोदी जी के मस्जिद जाने से हुआ है, क्योंकि विरोधियों का कहना है कि मोदी जी टोपी नहीं पहनते, फिर मस्जिद क्यों गये और अपने देश की मस्जिदों में क्यों नहीं जाते ? आज तक मुझे ये समझ नहीं आया कि टोपी पहनने से आदमी धर्मनिरपेक्ष कैसे हो जाता है ? क्या मुस्लिम समाज से जुड़ने के लिए और उनका साथ पाने के लिये मस्जिद जाना जरूरी है और क्या जो नेता टोपी पहनते हैं, मस्जिद जाते हैं और इफ्तार करते है वही धर्मनिरपेक्ष है ? क्या धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा यही है ?
वास्तव में काँग्रेस ने आजादी के पहले से ही तुष्टीकरण को धर्मनिरपेक्षता का नाम दे दिया था और उनकी इसी नीति के कारण देश का बँटवारा हुआ, क्योंकि इसी नीति के कारण नाराज हिन्दु कट्टरवादियों की शरण में चले गए और इससे भयभीत होकर मुस्लिम जिन्नाह की शरण में चल गए । सच्ची धर्मनिरपेक्षता कहती है कि आप अपने धर्म का पालन करों और दूसरो को उनके धर्म का पालन करने दो, न कि दूसरों के धार्मिक रीति रिवाजों में शामिल होकर उन्हें मूर्ख बनाओ । लगभग सारे मुस्लिम इसी बात को मानते हैं, इसलिए वो मन्दिर नहीं जाते, मूर्तिपूजा नहीं करते, तिलक नहीं लगाते और न ही इधर-उधर माथा टेकते फिरते है, क्योंकि वो अपने धर्म का पूरी सच्चायी से पालन करते हैं, इसलिए उन्हें किसी ढकोसले की जरूरत नहीं रहती । मोदी जी अपने धर्म का पूरे समर्पण भाव से पालन करते है और वोटो के लिए कोई दिखावा नहीं करते । अगर धर्मनिरपेक्ष नेताओं की हरकतों की बात की जाए तो इस देश में कोई भी मुस्लिम धर्मनिरपेक्ष नहीं रह जाएगा ।
मोदी जी ने विदेशी मेजबान का सम्मान करते हुए खूबसूरत मस्जिद का बिना टोपी पहने हुए दौरा किया और बड़ी ध्यान से उसको देखा और समझा । पहली बार मोदी जी मस्जिद गए और वहाँ भी मोदी-मोदी के नारे लगने लगे । इस बात से उनके विरोधियों को सावधान हो जाना चाहिए कि अगर वो भारत में भी मस्जिदों में जाने लगे तो उनका क्या होगा । इसी कारण उनके विरोधी मोदी की मस्जिद यात्रा को लेकर उल्टे-सीधे बयान दे रहे हैं । अजीब बात है, मोदी न जाए तो दिक्कत और जाए तो दिक्कत, क्योंकि दिक्कत तो उनकी छोटी सोच में
छुपी हुई है, जिसे बदलना आसान नहीं है ।
हम जानते हैं कि आईएस का प्रभाव मुस्लिम देशों में बढ़ता जा रहा है और सभी मुस्लिम देश इससे भयभीत हैं । आईएस आगे चलकर हमारे लिए भी मुसीबतें खड़ी कर सकता है । आईएस को रोकने के लिए साँझी रणनीति बनाने में यह दौरा महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है, क्योंकि आईएस पाकिस्तान तक आ चुका है, इसलिए अब इससे लड़ने के लिये तैयारी करनी ही होगी । दाऊद पर शिकंजा कसने के लिए भी हमें इस देश के सहयोग कर जरूरत है, क्योंकि उसके काले कारोबार का बड़ा हिस्सा इसी देश में है ।
मोदी जी के भाषण समारोह में हजारों की संख्या में मुस्लिमों ने भाग लिया, जिसका प्रभाव भारतीय मुस्लिम समाज पर पड़ना निश्चित है । वैसे भी देश की मुस्लिम राजनीति में औवेशी नाम की उठ रही आँधी ने कथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं की नींद उड़ा रखी है और अगर मोदी भी थोड़े से भी मुस्लिम वोट ले जातें है तो इन नेताओं को अपनी राजनीति चलाने के लिये दूसरे ग्रह पर जाना होगा । औवेशी स्पष्ट और तर्कपूर्ण बातें बोलते है, जिससे वो मुस्लिम समाज में काफी लोकप्रिय होते जा रहे हैं, कथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं की दोगली बातों से दुखी मुसलमान अब उनकी ओर रूख कर रहे हैं । यह बात भारतीय राजनीति में होने वाले बदलावों की ओर संकेत कर रही है ।
जितने प्यार और आदर से सऊदी अरब के शहजादे ने मोदी जी का स्वागत किया है, वो भारत के बढ़ रहे प्रभाव की ओर एक संकेत है । सारे प्रोटोकोल तोड़कर उन्होंने अपने पाँचो भाईयों के साथ एयरपोर्ट पर मोदी जी का स्वागत किया और मोदी जी के साथ मस्जिद भी गये, जो कि उनके आगमन पर आम जनता के लिये बन्द कर दी गई थी । जितना सम्मान हमारे प्रधानमंत्री को मिला है वो हमारे सम्बन्धों को न केवल सऊदी अरब के साथ बल्कि अन्य खाड़ी देशो के साथ भी नए रिश्तों को जन्म देगा और भारत को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी
पहचान दोबारा बनाने में मददगार साबित होगा ।
Friday, 22 May 2015
Tuesday, 12 May 2015
मोदी नीति से आएंगे डाकियों के अच्छे दिन !
पिछले कुछ वर्षों में मोबाइल, इंटरनेट द्वारा मैसेज, फेसबुक और व्हाट्सऐप
के प्रचलन के साथ ही पोस्ट ऑफिस में नियुक्त डाकियों की भूमिका लगभग
नगण्य सी हो गई थी. आधुनिक जमाने में अब कौन किसी को पत्र लिखता है भला.
सरकारी और अर्धसरकारी कार्यालयों में भी लेटर और मैसेज मेल के द्वारा ही
भेजे जाने लगे हैं और उन्हें अधिकृत मान्यता भी मिल रही है. ऐसे में
डाकियों का अस्तित्व अप्रासंगिक सा हो गया है. वे सिर्फ कुछ सरकारी
पत्रों, रजिस्ट्री और पार्सलों के निमित मात्र रह गए थे. लेकिन अब ऐसा
लगता है कि अगर केंद्र सरकार की नयी योजना कारगर सिद्ध हुई तो निश्चित ही
इनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी.
केंद्र सरकार ने डाक विभाग में पेमेंट बैंक शुरू करने की योजना बनाई है और अगर सब कुछ ठीकठाक रहा तो इसी वर्ष अगस्त या सितम्बर महीने से ये योजना शुरू भी हो सकती है. इसके अन्तर्गत बैंक बनने के बाद डाकियों को उनकी नयी भूमिका के तहत एक मशीन दी जाएगी. जिसके द्वारा वे गांव-गांव जाकर ग्रामीणों को बैंकिंग सुविधाएँ देंगे. वे पोस्ट ऑफिस के ग्रामीण खाता धारकों को उनकी आवश्यकता के अनुसार रुपयों का भुगतान करने और उनके पैसे जमा करने का दायित्व निभाएंगे. वे उन्हें किसी प्रकार के कर्ज की सुविधा नहीं देंगे. उनकी ये भूमिका उन गावों के लिए अधिक लाभप्रद होगी जहाँ डाक खाने नहीं है.
केंद्र सरकार के वित्तीय समावेशन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए ये योजना कारगर सिद्ध हो सकती है. ये डाकिये प्रतिदिन गावों में जाकर उनके पास उपलब्ध मशीनों के माध्यम से ग्रामीणों के खातों का संचालन करेंगे.
आंकड़ों के अनुसार देश में लगभग एक लाख पचपन हज़ार डाक घर हैं जिसमें से इनकी बड़ी संख्या ग्रामीण इलाकों में ही है. लगभग 90 प्रतिशत यानि एक लाख चालीस हज़ार डाकघर गावों में ही है. सरकार द्वारा लाया जा रहा पेमेंट बैंक भारतीय डाक विभाग के सहयोगी संस्था के रूप में ही काम करेगी और पोस्ट मैन की नई भूमिका यहीं से शुरू होगी.
यही नहीं, इन डाकियों को कुछ और भी दायित्व दिए जाने की योजना है. मसलन, भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान ग्रामीणों को अच्छे बीज और अन्य तकनीकी जानकारी उन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी इन्हें देने की सोच रहा है. डाक घर द्वारा दी जाने वाली अन्य सुविधाओं के बारे में ग्रामीणों को सूचना देना, उन्हें समझाना भी इनके कार्य का हिस्सा होगा.
निश्चय ही सरकार की ये सोच ग्रामीणों के लिए महत्वपूर्ण होगी क्योंकि सरकार द्वारा जो भी नयी योजनाएं लाई जा रही हैं वे बैंकों के माध्यम से ही लागू हो रही हैं. अभी भी बड़ी संख्या में ऐसे गांव हैं जहाँ आज भी
बैंकिंग सुविधाएँ नहीं हैं. ग्रामीणों को मीलों चलकर अपने बैंक जाना होता है और कुछ हद तक ये सरकारी बैंक उनसे हमराह भी हो पाते यानि वे उनकी जरूरतों को पूरा करने में समर्थ नहीं हो पाते. ऐसे में डाकियों के माध्यम से घर-घर मिलने वाली ये सुविधा उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. केंद्र सरकार की डाकघर के माध्यम से डाकियों के रोल को बदलने की सोच अगर यथार्थ के धरातल पर सही साबित हुई तो निश्चय ही डाकियों के आर्थिक और सामाजिक हालात बदलेंगे. उनके भी अच्छे दिन आएंगे. इससे वे मोटिवेट होंगे और उनमें नई ऊर्जा का संचार होगा.
केंद्र सरकार ने डाक विभाग में पेमेंट बैंक शुरू करने की योजना बनाई है और अगर सब कुछ ठीकठाक रहा तो इसी वर्ष अगस्त या सितम्बर महीने से ये योजना शुरू भी हो सकती है. इसके अन्तर्गत बैंक बनने के बाद डाकियों को उनकी नयी भूमिका के तहत एक मशीन दी जाएगी. जिसके द्वारा वे गांव-गांव जाकर ग्रामीणों को बैंकिंग सुविधाएँ देंगे. वे पोस्ट ऑफिस के ग्रामीण खाता धारकों को उनकी आवश्यकता के अनुसार रुपयों का भुगतान करने और उनके पैसे जमा करने का दायित्व निभाएंगे. वे उन्हें किसी प्रकार के कर्ज की सुविधा नहीं देंगे. उनकी ये भूमिका उन गावों के लिए अधिक लाभप्रद होगी जहाँ डाक खाने नहीं है.
केंद्र सरकार के वित्तीय समावेशन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए ये योजना कारगर सिद्ध हो सकती है. ये डाकिये प्रतिदिन गावों में जाकर उनके पास उपलब्ध मशीनों के माध्यम से ग्रामीणों के खातों का संचालन करेंगे.
आंकड़ों के अनुसार देश में लगभग एक लाख पचपन हज़ार डाक घर हैं जिसमें से इनकी बड़ी संख्या ग्रामीण इलाकों में ही है. लगभग 90 प्रतिशत यानि एक लाख चालीस हज़ार डाकघर गावों में ही है. सरकार द्वारा लाया जा रहा पेमेंट बैंक भारतीय डाक विभाग के सहयोगी संस्था के रूप में ही काम करेगी और पोस्ट मैन की नई भूमिका यहीं से शुरू होगी.
यही नहीं, इन डाकियों को कुछ और भी दायित्व दिए जाने की योजना है. मसलन, भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान ग्रामीणों को अच्छे बीज और अन्य तकनीकी जानकारी उन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी इन्हें देने की सोच रहा है. डाक घर द्वारा दी जाने वाली अन्य सुविधाओं के बारे में ग्रामीणों को सूचना देना, उन्हें समझाना भी इनके कार्य का हिस्सा होगा.
निश्चय ही सरकार की ये सोच ग्रामीणों के लिए महत्वपूर्ण होगी क्योंकि सरकार द्वारा जो भी नयी योजनाएं लाई जा रही हैं वे बैंकों के माध्यम से ही लागू हो रही हैं. अभी भी बड़ी संख्या में ऐसे गांव हैं जहाँ आज भी
बैंकिंग सुविधाएँ नहीं हैं. ग्रामीणों को मीलों चलकर अपने बैंक जाना होता है और कुछ हद तक ये सरकारी बैंक उनसे हमराह भी हो पाते यानि वे उनकी जरूरतों को पूरा करने में समर्थ नहीं हो पाते. ऐसे में डाकियों के माध्यम से घर-घर मिलने वाली ये सुविधा उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. केंद्र सरकार की डाकघर के माध्यम से डाकियों के रोल को बदलने की सोच अगर यथार्थ के धरातल पर सही साबित हुई तो निश्चय ही डाकियों के आर्थिक और सामाजिक हालात बदलेंगे. उनके भी अच्छे दिन आएंगे. इससे वे मोटिवेट होंगे और उनमें नई ऊर्जा का संचार होगा.
Sunday, 10 May 2015
मोदी जी, हम तो आपके भरोसे ही हैं. देख लीजिएगा.
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में पीएम मोदी ने कहा, कंधे पर बंदूक नहीं बल्कि हल होने से ही विकास होगा और इससे हर कोई विकास की मुख्य धारा से जुड़ सकेगा. हिंसा का कोई भविष्य नहीं है. भविष्य सिर्फ शांतिपूर्ण कार्यों में है. नक्सल आंदोलन के जन्मस्थल नक्सलबाड़ी ने पहले ही हिंसा का रास्ता छोड़ दिया है. निराश न हों, मौत का तांडव खत्म होगा. प्रधानमंत्री ने बागियों से कहा कि कुछ दिन के लिए अपनी बंदूकें रख दें और उनकी हिंसा से जो परिवार प्रभावित हुए हैं, उनसे मिलें. यह अनुभव आपको आपका मन बदलने पर मजबूर कर देगा और आपको हिंसा का रास्ता छोडऩे की प्रेरणा देगा. कहा कि लोकतंत्र में हिंसा का कोई भविष्य नहीं है. कंधे पर हल से विकास हो सकता है, बंदूक से नहीं. मोदी ने कहा कि मौत का तांडव खत्म होगा. लक्ष्य हासिल करने के लिए कभी जीवन को सफलता और असफलता के तराजू में नहीं तोलना चाहिए. विफलताओं से हमें सीखना चाहिए. सफलता का हिसाब लगाने से निराशा आती है. मैं सफलता के लक्ष्य से काम नहीं करता. विफलता और सफलता आती रहती है.
पहली नजर में तो किसी प्रधान सेवक की ये बातें अच्छी लगती हैं. चलो एक अरसे बाद कोई तो ऐसा प्रधानमंत्री मिला जो किसी मुखिया की जिम्मेदारियों को बखूबी समझता है. लेकिन गंभीरता से सोचने पर मैंने यह पाया कि मोदी जी ने यह सब आखिर किससे कहा है? उनसे जिनके लिए दूसरों की जान की कोई वैल्यू नहीं? या फिर उनसे जो अपनी मांगों को लेकर अरसे से जिद्दी बने हुए हैं? क्या मोदी जी को वाकई यकीन है कि इन बातों के जरिए उन्होंने नक्सलियों को जो संदेश दिया है, वे उसे जायज मानेंगे? क्या वे भविष्य में हथियार नहीं उठाएंगे? मोदी जी आपको यकीन होगा लेकिन मुझे रत्ती भर यकीन नहीं. बदलते वे हैं जो बदलने की चाहत रखते हैं. जिनमें तनिक भी इंसानियत बची होती है. लेकिन नक्सलियों में न तो जज्बात हैं और न ही इंसानियत. फिर वे भला क्यों किसी की बात मानने लगे? और वैसे भी, अब तक नहीं माने तो आगे क्या मानेंगे?
बीते लोक सभा चुनाव की बात है. अप्रैल 2014 में चुनाव प्रचार के दौरान आपने ही कहा था कि देश को चलाने के लिए 56 इंच का सीना चाहिए. तो फिर नक्सलियों को दिए गये संदेश में इतनी बेबसी आखिर क्यों? नक्सलियों को जज्बाती पाठ पढ़ाने का क्या फायदा? सुधार की गुंजाइश वहीं होती हैं जहां चाह हो. लेकिन यहां ऐसा कुछ भी नहीं. आप प्रधानमंत्री हैं. चेतावनी दीजिए. उन्हें इस बात का भान कराइये कि अगर तुम हथियार उठा सकते हो तो हमने भी चूडिय़ां नहीं पहन रखीं. मोदी जी, कम से कम आपसे तो यह उम्मीद की ही जा सकती है. आंतरिक लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाने वालों के खिलाफ कड़े कदम उठाने की जरूरत है. वर्ना कहीं भविष्य में ऐसा कहने को न हो जाए कि घर के भेदी ने ही लंका ढा दी. इस भेडिय़ों से बातचीत का दौर नहीं चलना चाहिए. इन्हें अंतिम चेतावनी देनी चाहिए. लेकिन छत्तीसगढ़ यात्रा पर आपने ऐसा कुछ भी नहीं किया. निराशा हुई. लेकिन फिर भी, हम देशवासियों को अब भी आपसे उम्मीदे हैं.
और हां, आपने नक्सलियों के गढ़ में जाकर जिस तरह बच्चों के सवालों का जवाब दिया, वह एक जिगर वाला ही कर सकता है. छत्तीसगढ़ के इतिहास में पहली बार हुआ कि किसी प्रधानमंत्री ने वहां के बच्चों के साथ मनोरंजन किया. उनसे घुले-मिले और उनकी सवालों का कोई राजनीतिक नहीं, बल्कि आदमियतता से जवाब दिया.
आपने जीवन की सफलता और मेहनत से जुड़े ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया, जो साफ तौर पर लग रहा था कि ये दिल की आवाज़ है. आपका यह सब कहना कि जो अपनों के लिए जीते हैं, उन्हें थकान नहीं होती. तनाव काम करने से नहीं होता, तनाव काम नहीं करने से होता है. मैं काम करने के घंटे नहीं गिनता आदि दर्शाता है कि हमारे पीएम के इरादे मजबूत हैं. लेकिन आज लगा कि मजबूती में मायूसी की नमी जाकर छिप गई है. देख लीजिएगा. हम तो आपके भरोसे ही हैं, मोदी जी.
Sunday, 26 April 2015
दिल्ली पुलिस है गजेंद्र की मौत की जिम्मेदार
जंतर-मंतर
में बुधवार को हुई आम आदमी पार्टी की रैली और उसमें हुई राजस्थान के दौसा
निवासी किसान गजेंद्र सिंह के दिनदहाड़े सार्वजनिक तौर पर आत्महत्या करने
पर समूचे मुल्क में बहस चल रही है। फिर बात चाहे न्यूज चैनल्स की हो या फिर
सोशल मीडिया की। हर तरफ चर्चाओं का जोर है। एक साथ कई सवाल किये जा रहे
हैं।
इस
पूरे प्रकरण में अगर कोई सबसे ज्यादा दोषी है तो वह है दिल्ली पुलिस। जी
हां, दिल्ली पुलिस। वह दिल्ली पुलिस जो मूकदर्शक बनी रही। वह दिल्ली पुलिस
जो केंद्र में बैठे अपने राजनीतिक आकाओं को नाराज न करने के लिए अपने काम
से भागते हैं। वह दिल्ली पुलिस जो किसी विदेशी मुल्क के मुखिया के देश में
आने पर उसकी खिदमत में दिन-रात एक कर देती है। वह दिल्ली पुलिस जो यह भूल
चुकी है कि पुलिस का काम इस देश और जनता की जान माल की हिफाजत करना है।
वह दिल्ली पुलिस जिसके दिलेरी के किस्सों
पर आएदिन मेडल सजाए जाते हैं, लेकिन अफसोस कि दिल्ली पुलिस के जिन जवानों
के गले में बहादुरी के मेडल सजते हैं, गजेंद्र की मौत के वक्त वही जवा न
कायरों की तरह मौत को किसी तमाशे की तरह देखते रहे। गजेंद्र के गले में
फांसी का फंदा देखते वक्त उन जवानों का दिल नहीं पिघला जो अपने गले में
हंसते-हंसते बहादुरी का मेडल पहन लेते है। अगर यही है दिल्ली पुलिस तो वही
गजेंद्र की मौत की जिम्मेदार है।
आप सोच रहे होंगे कि मैं बार-बार दिल्ली
पुलिस को कटघरे में क्यों खड़ा कर रहा हूं? इसकी वजह यह है कि दिल्ली पुलिस
को कहीं अन्य राज्य की पुलिस एक स्पेशल नजरिये से देखा जाता है। स्पेशल
नजरिये का सीधा मतलब है दिल्ली पुलिस पर राज्य सरकार का नियंत्रण न होना।
गौरतलब है कि आम आदमी पार्टी की रैली में गजेंद्र की आत्महत्या के बाद
विरोधी पक्ष मुखर होकर सामने आया। लेकिन ऐसी मुखरता का क्या मतलब जिनसे
किसानों की जान भी न बचाई जा सके? मोदी-केजरीवाल खेमा सामने आया। मोदी खेमा
गजेंद्र की मौत का जिम्मेदार केजरीवाल को ठहरा रहा है तो वहीं केजरीवाल
खेमा नरेंद्र मोदी की उस पटना रैली को सामने लेकर आया है जिसमें ब्लास्ट
हुआ था।
केजरीवाल खेमे का तर्क है कि क्या मोदी ने
उस वक्त मंच से कूदकर लोगों को बचाने की कोशिश की थी? जवाब है नहीं। लेकिन
जहां तक मेरा मानना है तो पटना रैली और जंतर मंतर रैली में एक समानता है।
वह यह है कि दोनों शहरों और राज्य की पुलिस का मूकदर्शक बने रहना। पटना में
बम ब्लास्ट हुए, निश्चित रूप से पुलिस की नाकामी का एक उदाहरण है।
गांधी मैदान में रैली के एक रात पहले
नीतीश कुमार ने राज्य के पुलिस महानिदेशक अभयानंद को पूरे गांधी मैदान को
सैनिटाइज करने का निर्देश दिया था। लेकिन उस रात आईपीएस मेस में दिवाली
पार्टी चल रही थी और बिहार पुलिस के अला अधिकारी और उनके नीचे के
अधिकारियों में एक सामान्य धारणा थी कि अगर मोदी की रैली की सुरक्षा को
लेकर उन्होंने ज्यादा गंभीरता दिखाई तो शायद राजनैतिक बॉस मतलब नीतीश कुमार
नाराज हो जाएंगे। इसलिए पुलिस ने कहीं कोई व्यवस्था नहीं की थी जिसके कारण
एक नहीं बल्कि कई बम गांधी मैदान में मिले और कई ब्लास्ट हुए। जिसमें सात
लोगों की जान गई।
कुल मिलाकर जंतर-मंतर में हुई आम आदमी
पार्टी की इस रैली की सबसे बड़ी असफलता यह है कि जिस मकसद से यह रैली
आयोजित की गई थी, गजेंद्र की मौत के साथ उसका भी दम घुट गया। बात किसान
हितों की है। बात नैतिकता की है। बात केंद्र व राज्य सरकार की नाकामियों की
है। मुल्क की आजादी के छह दशक बाद भी किसान अगर मौत को गले लगा रहा है तो
इसका जिम्मेदार कोई व्यक्ति विशेष भला कैसे हो सकता है?
आज तक ऐसी व्यवस्था या ऐसी नीतियां क्यों
नहीं बन पाईं जो कम से कम किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर न करें।
इसमें विफलता किसकी है? किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों की संख्या में तो
इजाफा हो गया लेकिन दिल्ली पुलिस की नैतिकता के नाम पर जो निष्क्रियता
हमेशा से बनी है उसमें सुधार न जाने कब होगा? होगा भी या नहीं होगा।
गजेंद्र की मौत यह सवाल छोड़ गई है। दिल्ली पुलिस के लिए, सिस्टम के लिए और
हम सबके लिए।
Saturday, 18 April 2015
कानून व्यवस्था पर विफल 'समाजवाद'
उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था हाशिए पर है. जिसकी तस्दीक करती है यह तस्वीर. |
सपा
सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने में असफल
होना ही 2008 के विधानसभा चुनावों में हार का कारण बना था. इसके बावजूद
सरकार सबक लेने को तैयार नहीं दिखती. यूपी के खौफजदा माहौल में उक्त मौतें
भले ही लोगों की सिसकियों से दब जाएं लेकिन सत्ता परिवर्तन के वक्त जनता इस
सिसकियों को बदला लेना बखूबी जानती है. ऐसे में सत्तारूढ़ पार्टी को एक
जिम्मेदार पार्टी होने की नजीर पेश करते हुए अपराध जगत के खात्मे के लिए
कुछ ऐसी ठोस पहल करनी होगी जिसकी मिसाल आने वाले दिनों में दी जाए और उत्तर
प्रदेश अपराध मुक्त राज्य में अव्वल बने. यह यकीनन किसी ख्वाब से कम तो
नहीं है लेकिन फिर भी उम्मीदों की गुंजाइश दम नहीं तोडऩी चाहिए. हो सकता है
कि हम वो सूरज भी देखें जिसकी किरणों से उत्तर प्रदेश के अपराध मुक्त होने
का संदेश मिल रहा हो. अगर अखिलेश यादव की नजर में ऐसे सूरज की किरणों का
प्रस्फुटित होना होना असंभव हो तो उन्हें नैतिकता के नाते तुरंत अपना
त्यागपत्र दे देना चाहिए. वैसे भी शायद मौजूदा हालात भी कुछ ऐसा ही कह रहे
हैं कि कानून व्यवस्था अब अखिलेश के बस की बात नहीं.
लखनऊ के हसनगंज एरिया में दिनदहाड़े ट्रिपल मर्डर
हो या फिर मोहनलालगंज में महिला की अस्मिता को तार-तार कर उसकी हत्या कर
देना व नग्न अवस्था में शव को खुलेआम छोड़ देना, ये दोनों ही घटनाएं उत्तर
प्रदेश सरकार में बदहाल कानून व्यवस्था की तस्दीक करती हैं. सपा सरकार के
साम्राज्य में जुर्म की फसल लहलहाने लगती है. बात अगर हसनगंज इलाके में हुए
ट्रिपल मर्डर की करें तो खास बात यह है कि देश के सबसे बड़े राज्य का पॉश
इलाका होने के बावजूद कानून से बेखौफ हत्यारों का हौसला बुलंद था. लेकिन इस
बुलंद हौसले के पीछे शासन, प्रशासन व परिवारवाद की भेंट चढ़ी यूपी की
सत्ता की तथाकथित बुलंदियां अपनी नाकामी शामिल है. कानून व्यवस्था पर अक्सर
घिरी रहने वाली सपा सरकार की विफलता एक बार फिर सामने आ खड़ी हुई है.तर्क देने को दिया जा सकता है और दिया भी जाएगा कि सरकार जुर्म करने को थोड़े ही कहती है. चलिए मान लेते हैं अखिलेश साहब. लेकिन जरा अपने दिल पर हाथ रखकर सोचिए. क्या इन मौतों में परोक्ष रूप से आप जिम्मेदार नहीं हैं? क्या कानून नियंत्रण में आप असफल नहीं रहे हैं? क्या आपकी अफसरशाही इतनी आराम तलब नहीं हो गई है कि अपराधी दिनदहाड़े जघन्य अपराधों को सरेआम अंजाम देने में जरा भी नहीं हिचकते? क्या ऐसी ही कानून व्यवस्था के लिए जनता ने आपको पूर्ण बहुमत दिया था? साहेबान, क्या आपने कभी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर गौर किया है? किया ही होगा. एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार कानून व्यवस्था के लिहाज से देश का सबसे बड़ा प्रदेश हाशिये पर है. अपराधों की संख्या में यहां कुछ इस कदर इजाफा होता है कि जैसे दूब की फसल उगती है. इसके बावजूद आपने कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए वैसे नियम नहीं बनाए जिनकी दुनिया में मिसाल दी जाती है. कानून व्यवस्था का सुदृढ़ होना जीने के अधिकार को परिपक्व करने की आरे उठाया जाने वाला अहम कदम है. जो सरकार अपनी प्रजा की हिफाजत करने में असफल हो उसे सत्ता में बने रहने का हक क्यों दिया जाना चाहिए? क्या नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री को इस्तीफा नहीं देना चाहिए?
जब प्रदेश की राजधानी के ये हाल हैं तो फिर अन्य जनपदों में तो सुरक्षा व्यवस्था के क्या हाल होंगे, इसका आंकलन करना बेहद आसान है. लेकिन सपा सरकार को यह समझना होगा कि जिस समाजवाद की नींव पर उनकी सरकार आज टिकी है, उसमें लोहिया जी के सशक्त इरादों की ईंटें लगी हैं. लेकिन विडंबना यह है कि समाजवाद के मौजूदा झंडाबरदार ही इसकी नींव को खोखला करने के लिए जिम्मेदार हैं. उत्तर प्रदेश में नीति आधारित सरकार चलाने का वादा करना और उसे निभाना हमेशा से ही दो अलग बातें रही हैं. फिर चाहे वह कोई भी पॉलिटिकल पार्टी क्यों न हो.
जनता सत्ता में बदलाव इसलिए करती है क्योंकि उसे पिछली सरकार के मुकाबले नई सरकार से कुछ बेहतर की उम्मीद रहती है. सपा सरकार को अगर बसपा सरकार के मुकाबले की कसौटी पर कसें तो बेशक बेहतर काम हुआ है. सपा सरकार ने यकीनन समाजावदी एंबुलेंस सर्विस, कन्या विद्याधन जैसी बेहतरीन योजनाओं को अमल में लाया. यह सराहनीय है. लेकिन वहीं अगर कानून व्यवस्थ की बात करें तो इसमें वह बसपा सरकार के आसपास भी नहीं दिखती. कानून व्यवस्था वह मछली है जो सपा सरकार की अच्छी नीतियों पर एक झटके में पानी फेर देती है. यही वह मछली है जो समाजवादी पार्टी की सरकार की किरकिरी का कारण बनती आई है. इसके बावजूद सपा सरकार सबक नहीं ले रही है. लूट, अपहरण, डकैती, मर्डर, रेप आदि घटनाओं का यूपी में दिनोंदिन बढ़ता ग्राफ सरकार की साख घटा रहा है.
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