शाम को घर लौटते वक्त रास्ते में एक जलेबी बेचने वाले भइया ठेला लगाते हैं। जितनी उनकी जलेबियां टेढीं होती हैं, उससे कहीं ज्यादा सीधा और सरल है उनका स्वभाव। मैं अमूमन उनके यहां जलेबी खाता हूं। रोज का ठहराव एक रिश्ता तो बनाता ही है। हमारा भी बन गया है। दुकानदार-ग्राहक का रिश्ता। इस नि:स्वार्थ रिश्ते में जलेबी की चाशनी से भी ज्यादा मिठास है। एक अपरिचित शहर में मेरे परिचय की डायरी में उनका भी नाम दर्ज हो चुका है।
बात बीती शाम की है। ठेला भी था और जलेबियां भी। लेकिन चेहरा वो नहीं था जो हर रोज दिखता था। नए शहर में नया चेहरा देखकर थोड़ा संशय होता है। मन में तरह-तरह के बेजा सवाल घूमने लगते हैं। खैर, मैं हर बार की तरह इस बार भी ठेले पर गया। जलेबी खाई। मिठास भी वही। जलेबी खिलाने वाले का व्यवहार भी वही। लेकिन चेहरा तो वो नहीं!
आखिरकार, रहा नहीं गया। पूछ ही डाला - आप इससे पहले तो कभी दिखे नहीं यहां! आज अचानक! 'जी, सही कह रहे हैं आप। यहां मेरे पापा रोज बैठते हैं। आज उनकी तबीयत जरा नासाज है इसलिए मैं संभाल रहा हूं।', जलेबी वाला बोला। इतना कहते ही खुली किताब की तरह सबकुछ सामने आ गया। एक अच्छे पिता की परवरिश का अक्स तो दिखना बनता ही था।
उसने बताया कि वह सरकारी नौकरी करना चाहता है और इसलिए एसएससी की तैयारी करने में मशगूल रहता है। एक परीक्षा में 3 नंबर से रह जाने का मलाल भी उसकी बातों में दिखा। लेकिन वो निराशावादी जरा भी नहीं था। उसने तुरंत ही मुस्कुराते हुए बोला - फिर कोशिश करेंगे, हो ही जाएगा। उसकी यह बात मुझे छू गई। उसे आशावाद पर जरा भी संदेह न रह जाए, इसलिए मैंने भी उसकी हां में हां मिलाई और चींटी का उदाहरण दिया। मैंने कहा - सही कह रहे हो दोस्त। हमें चींटी से सीखना चाहिए। बार बार गिरने के बावजूद कोशिश करती है और मंजिल तक पहुंचती है। कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। उसने पूछा - आप क्या करते हो? मैंने मुस्कुराकर कहा - संभावनाओं की तलाश।
वैसे भी, मैं निराशावादी लोगों को रत्ती भर पसंद नहीं करता। बहस करने की फितरत नहीं है, सो एक मंद मुस्कान देकर किनारा कर लेता हूं। बहस के लिए टीवी एंकर्स बैठे हैं। मोटी तनख्वाह पर। वे हम लोगों का वक्त जाया करने और आंखों की रौशनी कम करने के लिए काफी हैं।
इस किस्से को आपसे साझा करने की एक ही वजह है। वह है इससे मिलने वाली सीख। आर्थिक विषमताओं के बीच रहकर भी ईमानदारी से अपना फर्ज निभाकर, आशावादी रहकर हौसले को डिगने न देने में ही हमारा बड़प्पन है। अगर पैसा ही छोटे या बड़े होने का पैमाना बनता रहेगा तो हम हर बार दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर होते रहेंगे।
कभी टैक्सी ड्राइवर की बेटी को अफसर बनते देख तो कभी चाय वाले के बच्चे को प्रधानमंत्री बनते देख। फैसला आपका है। दिमाग आपका है। समझ आपकी है। इरादा आपका है। बदलने की नहीं, सुधरने की जरूरत है। थोड़ी सी संवेदना के साथ। दुनिया देखने का नजरिया खुद-ब-खुद लीक से हटकर बन जाएगा। कोशिश तो करिए।
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