Tuesday, 24 May 2016

एक दादी है मेरी...थोड़ी सी जवान सी

एक दादी है मेरी
थोड़ी सी जवान है
डरता हूं कि
किसी की नज़र में तो नहीं है
नज़र उतारती थी
मेरे बचपन की हर रोज
आज मैं उतारना चाहता हूं
नजर उसकी
इसलिए कि
न लगे उसे किसी की नज़र
नहीं चाहता कि ले जाए कोई
उसको चुराकर
मेरी नज़रों से, यादों से
कहानियों से, किस्सों से
ज़िदगी के हिस्से से
बात होती है जब कभी
हंसकर रो देती है
सबकुछ कह देती है
जो जुटाया होता है उसने
मेरे लिए, बीती कॉल से
ज़ेहन में भर देती है वो ताज़गी
जो न किसी चार की पत्ती में
और न ही किसी बागान में
मैं हो जाता हूं जिंदा सा
फिर से...
मौत के करीब से लौटकर
आने जितनी खुशी समेटकर
आगे कुछ कहने, सुनने को
बचता ही नहीं
फिर क्या सुनोगे, कितना सुनोगे
जब कहना था, तब कहा नहीं
जब सुनना था, तब सुना नहीं
एक दादी होगी तुम्हारी भी
थोड़ी सी जवान सी
है न?

- प्रवीण दीक्षित

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