Tuesday, 24 May 2016

एक दादी है मेरी...थोड़ी सी जवान सी

एक दादी है मेरी
थोड़ी सी जवान है
डरता हूं कि
किसी की नज़र में तो नहीं है
नज़र उतारती थी
मेरे बचपन की हर रोज
आज मैं उतारना चाहता हूं
नजर उसकी
इसलिए कि
न लगे उसे किसी की नज़र
नहीं चाहता कि ले जाए कोई
उसको चुराकर
मेरी नज़रों से, यादों से
कहानियों से, किस्सों से
ज़िदगी के हिस्से से
बात होती है जब कभी
हंसकर रो देती है
सबकुछ कह देती है
जो जुटाया होता है उसने
मेरे लिए, बीती कॉल से
ज़ेहन में भर देती है वो ताज़गी
जो न किसी चार की पत्ती में
और न ही किसी बागान में
मैं हो जाता हूं जिंदा सा
फिर से...
मौत के करीब से लौटकर
आने जितनी खुशी समेटकर
आगे कुछ कहने, सुनने को
बचता ही नहीं
फिर क्या सुनोगे, कितना सुनोगे
जब कहना था, तब कहा नहीं
जब सुनना था, तब सुना नहीं
एक दादी होगी तुम्हारी भी
थोड़ी सी जवान सी
है न?

- प्रवीण दीक्षित

Monday, 4 April 2016

पैसा के पीछे लोग इस हद तक भी पागल होते हैं, कभी सोचा न था !

दिल्ली में आयोजित 'द लग्जरी फेस्टिवल' का आखिरी दिन था और अपना वीकली आॅफ भी। निकल पड़े कुछ नया देखने। पुरानी नजर से। साथ मिला आजतक में कार्यरत हमारे साथी बृजेश बाबू का। वापसी के दौरान आईटीओ मेट्रो स्टेशन के पास हमने पानी की बोतल खरीदी और दो घूंट पानी गले के नीचे उतारा ही था कि तभी कैब वाले एक जनाब आ टपके। शायद दूर से तक रहे थे। उन्हें इस बात का साफ अंदाजा था कि बंदे कैब सर्विस लेते ही होंगे। हमारे नजदीक आए और बड़े कॉन्फिडेंस से अपने अकाउंट से एक ट्रिप रजिस्टर करने की गुजारिश की। बोले — 'भाई प्लीज एक ट्रिप ऐसे ही रजिस्टर कर दीजिए। मेरा 11 ट्रिप्स का दिनभर का कोटा पूरा हो जाएगा। मेरा टारगेट पूरा हो जाएगा और कैब कंपनी इसके एवज में 3 हजार रुपये हमारें अकाउंट में डाल देगी। सवेरे 4 बजे से गाड़ी घर से लेकर निकला हूं और रात के 8 बजने को हैं। इस वक्त तक महज 10 बुकिंग्स ही हो पाई हैं। आप ट्रिप रजिस्टर कर दीजिए, मैं आगे तीन—चार किलोमीटर तक गाड़ी ले जाकर घर पर खड़ी कर दूंगा।' हम लोग भी ठहरे कमजोर दिल वाले दयावान टाइप 'गधे'। हामी भर दी।
बृजेश बाबू ने अपने मोबाइल से तुरंत ही ट्रिप रजिस्टर कर दी। कैब वाले भाईसाहब का टार्गेट पूरा हो गया। टार्गेट पूरा होने का मैसेज उनके मोबाइल पर टूं टूं जैसे ही किया, उन्होंने हमारी तारीफ के पुल बांध दिए। कुछ ही मिनटों में दुनियाभर की सारी दुआएं दे डालीं। हमारे मन के पीछे वाले समंदर में फील गुड वाला इमोजी तैरने लगा। लगा कि चलो यार किसी के तो काम आ गए। अपना कुछ गया नहीं और दूसरे का भला हो गया। लेकिन उस वक्त तक हमें नहीं मालूम था कि हमारा यह परोपकार हमपर भारी पड़ने वाला है। वे जनाब इतने खुश थे कि उन्होंने हमें नजदीकी मेट्रो स्टेशन तक कैब से छोड़ने का आॅफर दिया, वो भी बिना पैसे लिए। गर्मी तो बेइंतहा थी ही, तो ऐसे में एसी कार में कुछ पल ही सही, बैठने को कौन नहीं बेताब होगा भला! हमने भी हामी भर दी और चल दिए।
लक्ष्मीनगर मेट्रो स्टेशन पर उतरने से कुछ पल पहले ही कैब वाले ड्राइवर साब ने एक बार और गुजारिश की। इस बार उन्होंने मुझसे अपने मोबाइल से एक और ट्रिप रजिस्टर करने को कहा। बोले — मेरा 3 हजार वाला तो टार्गेट पूरा हो ही गया है। लेकिन अगर आप भी एक ट्रिप रजिस्टर कर देंगे तो मुझे 500 रुपये बोनस में मिलेंगे! हमने भी हां कह दिया। लेकिन इस बीच उन जनाब के मोबाइल ने काम करना बंद कर दिया। वे हर बार 10 मिनट रुकने की गुजारिश करते और फोन जल्द ही ठीक होने का भरोसा देते। यह सिलसिला तकरीबन आधे घंटे तक चलता रहा। आखिरकार, हारकर उन्होंने हमसे हाथ मिलाए और हमारा वक्त बर्बाद करने के लिए माफी मांगते हुए चले गए। हमारा टाइम खोटी हुआ, उसकी फ्रस्टेशन तो दिमाग में थी लेकिन परोपकार करने की खुशी भी थी। इस पूरे सिलसिले में जो सबसे अहम बात थी, वह यह कि कैब ड्राइवर का लालच सातवें आसमान पर था। वह बार—बार कह रहा था कि भइया सवेरे 4 बजे से रात 12 बजे तक कार चलाता हूं। जिंदगी हथेली पर लेकर चलता रहता हूं। पूरा बदन दर्द करने लगता है। कार से उतरकर खड़ा होता हूं तो पैर कांपते हैं। उसके बाद बमुश्किल 11 ट्रिप्स का डेली टार्गेट पूरा कर पाता हूं।
पैसा किसी को किस हद तक पागल बना सकता है, इसका यह जीवंत उदाहरण मुझे वाकई चौंका गया! मैंने अबतक हमेशा से अपने नजरिए से ही लोगों को देखा था। मुझे लगता था कि लोग पैसा एक सुकून भरी जिंदगी के लिए कमाते हैं। लेकिन जो कमाई हमारी जिंदगी से सुकून के सारे पल छीन ले, ऐसी कमाई को बांधकर हम कहां ले जाएंगे! क्या हमारे लालच की कोई सीमा नहीं हो सकती है! क्या पर्याप्त जैसे शब्द संग जीने की आदत हम नहीं डाल पाए हैं!
हालांकि, इस सबके ठीक उलट यमुनाबैंक मेट्रो स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार करते वक्त इसी किस्से का दूसरा पहलू भी जेहन में आया। मुझे लगा कि ऐसा भी तो हो सकता है कि जिन परिस्थितयों में वो कैब ड्राइवर कमाई कर रहा है, उससे हम वाकिफ ही न हों। इस बात की भी आशंका है कि उसकेे घर की आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय हो और उसे किसी पारिवारिक जरूरत को पूरा करने के लिए दिन—रात एक करनी पड़ रही है। इस स्याह पक्ष के सामने आते ही सुनहरे पक्ष की सारी कल्पनाओं ने झट से दम तोड़ दिया। हमने बृजेश से यही बात साझा की। उसने भी हां में हां मिलाई। हम दोनों ने ही मन ही मन माफी मांगी। हकीकत क्या है, यह तो वह कैब ड्राइवर और रब ही जानता है। अगर पहले वाला किस्सा सच है तो फिर हमें अपनी महत्वकांक्षाओं की स्क्रूटनी करने की जरूरत है। दूसरा वाला हिस्सा सच है तो हमें कैब ड्राइवर से पूरी सहानुभूति है और उसकी मदद करके खुशी भी।

Wednesday, 30 March 2016

जरा सी संवेदना और थोड़ी सी जलेबी चाहिए एक नजरिया सुधारने को

शाम को घर लौटते वक्त रास्ते में एक जलेबी बेचने वाले भइया ठेला लगाते हैं। जितनी उनकी जलेबियां टेढीं होती हैं, उससे कहीं ज्यादा सीधा और सरल है उनका स्वभाव। मैं अमूमन उनके यहां जलेबी खाता हूं। रोज का ठहराव एक रिश्ता तो बनाता ही है। हमारा भी बन गया है। दुकानदार-ग्राहक का रिश्ता। इस नि:स्वार्थ रिश्ते में जलेबी की चाशनी से भी ज्यादा मिठास है। एक अपरिचित शहर में मेरे परिचय की डायरी में उनका भी नाम दर्ज हो चुका है।

बात बीती शाम की है। ठेला भी था और जलेबियां भी। लेकिन चेहरा वो नहीं था जो हर रोज दिखता था। नए शहर में नया चेहरा देखकर थोड़ा संशय होता है। मन में तरह-तरह के बेजा सवाल घूमने लगते हैं। खैर, मैं हर बार की तरह इस बार भी ठेले पर गया। जलेबी खाई। मिठास भी वही। जलेबी खिलाने वाले का व्यवहार भी वही। लेकिन चेहरा तो वो नहीं!

आखिरकार, रहा नहीं गया। पूछ ही डाला - आप इससे पहले तो कभी दिखे नहीं यहां! आज अचानक! 'जी, सही कह रहे हैं आप। यहां मेरे पापा रोज बैठते हैं। आज उनकी तबीयत जरा नासाज है इसलिए मैं संभाल रहा हूं।', जलेबी वाला बोला। इतना कहते ही खुली किताब की तरह सबकुछ सामने आ गया। एक अच्‍छे पिता की परवरिश का अक्‍स तो दिखना बनता ही था।
उसने बताया कि वह सरकारी नौकरी करना चाहता है और इसलिए एसएससी की तैयारी करने में मशगूल रहता है। एक परीक्षा में 3 नंबर से रह जाने का मलाल भी उसकी बातों में दिखा। लेकिन वो निराशावादी जरा भी नहीं था। उसने तुरंत ही मुस्‍कुराते हुए बोला - फिर कोशिश करेंगे, हो ही जाएगा। उसकी यह बात मुझे छू गई। उसे आशावाद पर जरा भी संदेह न रह जाए, इसलिए मैंने भी उसकी हां में हां मिलाई और चींटी का उदाहरण दिया। मैंने कहा - सही कह रहे हो दोस्‍त। हमें चींटी से सीखना चाहिए। बार बार गिरने के बावजूद कोशिश करती है और मंजिल तक पहुंचती है। कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। उसने पूछा - आप क्‍या करते हो? मैंने मुस्‍कुराकर कहा - संभावनाओं की तलाश।
वैसे भी, मैं निराशावादी लोगों को रत्‍ती भर पसंद नहीं करता। बहस करने की फितरत नहीं है, सो एक मंद मुस्‍कान देकर किनारा कर लेता हूं। बहस के लिए टीवी एंकर्स बैठे हैं। मोटी तनख्‍वाह पर। वे हम लोगों का वक्‍त जाया करने और आंखों की रौशनी कम करने के लिए काफी हैं।
इस किस्‍से को आपसे साझा करने की एक ही वजह है। वह है इससे मिलने वाली सीख। आर्थिक विषमताओं के बीच रहकर भी ईमानदारी से अपना फर्ज निभाकर, आशावादी रहकर हौसले को डिगने न देने में ही हमारा बड़प्‍पन है। अगर पैसा ही छोटे या बड़े होने का पैमाना बनता रहेगा तो हम हर बार दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर होते रहेंगे।
कभी टैक्‍सी ड्राइवर की बेटी को अफसर बनते देख तो कभी चाय वाले के बच्‍चे को प्रधानमंत्री बनते देख। फैसला आपका है। दिमाग आपका है। समझ आपकी है। इरादा आपका है। बदलने की नहीं, सुधरने की जरूरत है। थोड़ी सी संवेदना के साथ। दुनिया देखने का नजरिया खुद-ब-खुद लीक से हटकर बन जाएगा। कोशिश तो करिए।